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३० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
गाधवारिचरास्तापमविन्दञ्छरदर्जकम् । यथा दरिद्रः कृपण: कुटि ब्यविजितेन्द्रियः ॥
- ( थोड़े जल में रहने वाले प्राणी जिस प्रकार शरतकालीन सूर्य की प्रखर किरणों से पीड़ित होते हैं, उसी प्रकार अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले दरिद्र और कृपण कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं ।)
प्रस्तुत श्लोक में उदाहरण द्वारा दरिद्र और कृपण की स्थिति स्पष्ट करके नीति की स्थापना की गई है ।
काव्य के अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में कथाओं द्वारा भी नीति की शिक्षा दी गई है । यद्यपि ऐसा अनुमान है कि इस दृष्टि से ( नीति की दृष्टि से) कथाओं (लोक कथाओं) का संकलन सर्वप्रथम जातकों में किया गया | 2 जैन सूत्र - ज्ञाताधर्मकथा तथा उत्तराध्ययन सूत्र में भी कई लघु नीति कथाएँ मिलती हैं जिनकी प्रेरणा नीति के साथ धर्म से भी जुड़ गई है । किन्तु ऐसी कथाएँ उपाख्यायिकाओं के रूप में वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों में भी प्राप्त होती हैं । " लेकिन नीति कथा के रूप में इनको पंचतंत्र में स्थान प्राप्त हुआ ।
पंचतन्त्र की रचना विष्णु शर्मा ने एक राजा के में राजनीति और लोकनीति सिखाने के लिए की।
पुत्रों को ६ महीने इसमें कथाएँ तो गद्य
हैं और कथा के अन्त में एक नीति सम्बन्धी श्लोक दिया गया है । कथा का हार्द उस श्लोक में आ गया है ।
उदाहरण के लिए देखिए
एक बार वन में कुछ बढ़ई एक वृक्ष की डाल चीर रहे थे। दोपहर में वे आधीचीरी हुई डाल में कीली लगाकर भोजन करने चले गये । इतने में एक उत्पाती बन्दर आया और चिरे हुए भाग पर बैठकर कीली निकालने लगा । कीली निकल जाने से बन्दर का अण्डकोष दब गया और वह वहीं मरणको प्राप्त हो गया ।
१. श्रीमद्भागवत १०/२०/३८
२. विटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर, पृ० ४०६
३. ज्ञाताधर्म कथा के अध्ययन उत्तराध्ययन के चित्तसंभूतीय आदि अध्ययन देखें
जैन कथा साहित्य की विकासयात्रा - देवेन्द्र मुनि
४. कीथ : हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर पृ० २४६
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