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४८४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
वैर
न हि वेरेण वेराणि, सम्मन्तीध कुदाचनं । अवेरेण च सम्मन्ती; एस धम्मो सनन्तनो ।।
-धम्मपद १५ वैर से वैर कभी शांत नहीं होते; अवेर से ही वैर शांत होते हैं । शांति
उभिन्नमत्थं चरति, अत्तनो च परस्स च । परं संकुपितं त्वा, यो सतो उपसम्मति ।।
संयुत्तनिकाय १/४ दूसरे को कुपित जानकर भी जो स्मृतिमान शान्त रहता है, वह अपना और दूसरे का-दोनों का भला करता है। न हि रुण्णेन सोकेन, सन्ति पप्पोति चेतसो ।
-सुत्तनिपात ३/२४/११ __ रोने से या शोक करने से चित्त को शांति प्राप्त नहीं होती। शील सीलगंधो अनुत्तरो।
-धम्मपद ४/१२ शील (सदाचार) की सुगन्ध सर्वश्रेष्ठ है । सत्य-रस सच्चं हवे सादुतरं रसानं ।
-सुत्तनिपात १/१०/२ सभी रसों में सत्य का रस ही अनुपम सर्वश्रेष्ठ है । सुख-दुःख सव्वं परवसं दुक्खं, सव्वं इस्सरियं सुखं ।
-उदान २/8 जो पराधीन है, वह सब दुःख है और जो स्वाधीन है, वह सब सुख है। संगति
यादिसं कुरुते मित्तं, यादिसं चूपसेवति । स वे तादिसको होति, सहवासो हि तादिसो॥
-इतिबुत्तक ३/२७ जो जैसा मित्र बनाता है और जो जैसे संपर्क में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है, क्योंकि उसका सहवास (संगति) ही वैसा है।
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