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________________ ४८२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन बौध्द साहित्य की सूक्तियां अप्रमाद अप्पमादो अमतंपदं, पमादो मच्चुनो पदं । -धम्मपद २/१ अप्रमाद अमरता का मार्ग है, प्रमाद मृत्यु का। आचरण न च खुदं समाचरे किञ्चि, येन विज्ञ परे उपवदेय्य । -सुत्तनिपात १/८/३ ऐसा कोई क्षुद्र (ओछा) आचरण नहीं करना चाहिए, जिससे विद्वान लोग बुरा बताएँ। आलस नालसो विन्दते सुखं । -सुत्तपिटक (जातक) १७/५२१/१२ आलसी को सुख नहीं मिलता। , कर्म न हि नस्सति कस्सचि कम्म, एतिह नं लभतेव सुवामि ।। -सुत्तनिपात ३/३६/१० किसी का कृत कर्म नष्ट नहीं होता, समय पर वह कर्ता को प्राप्त होता ही है। काम-भोग यो कामे कामयति, दुक्खं सो कामयति । थेरगाथा १/६३ जो काम-भोगों की इच्छा करता है, वह दुःखों की कामना करता है । क्रोध कोधो वुच्चति धूमो। -चुल्लनिबेस पालि २/३/१७ क्रोध मन का धुंआ है। चित्त चित्तस्स दमथो साधु, चित्तं दन्तं सुखावहं । -धम्मपद ३/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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