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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य को सूक्तियां | ४८१ ।। चतुभंगी (मानव) आवायभद्दए णाम एगे णो संवासभद्दए । संवासभद्दए णामं एगे णो आवायभद्दए । एगे आवायभद्दए वि, संवासभद्दए वि । एगे णो आवायभद्दए, णो संवासभद्दए । -स्थानांग ४/१ (१) कुछ पुरुष प्रथम मिलन में अच्छे होते हैं, किन्तु सहवास-साथ रहने में अच्छे नहीं होते। (२) कुछ पुरुषों का सहवास अच्छा होता है, भेंट (प्रथम मिलन) नहीं। (३) कुछ पुरुषों की भेंट भी अच्छी होती है और सहवास भी अच्छा होता है। (४) कुछ पुरुषों की न भेंट अच्छी होती है और न सहवास अच्छा होता है। विद्या के अयोग्य चत्तारि अवायणिज्जाअविणीए, विगइ पडिबद्ध, अविओसितपाहुडे, माई । -स्थानांग ४/४ ___ चार पुरुष विद्याध्ययन के योग्य नहीं है-(१) अविनीत, (२) चटोरा, (३) झगड़ालू और (४) धूर्त चतुर्भ गी (हितेच्छा) अप्पणो णामं एगे पत्तियं करेइ, णो परस्स । परस्स णामं एगे पत्तियं करेइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणों पत्तियं करेइ, परस्स वि । एगे णो अप्पणो पत्तियं करेइ णो परस्स ॥ -स्थानांग ४/३ (१) कुछ पुरुष केवल अपना ही भला चाहते हैं, दूसरों का नहीं। (२) कुछ पुरुष अपना भला न चाहकर दूसरों का भला चाहते हैं। (३) कुछ पुरुष अपना भी भला चाहते हैं और दूसरों का भी। (४) कुछ पुरुष न अपना भला चाहते हैं, न दूसरों का ही। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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