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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य को सूक्तियां | ४७७ सन्तोष असंतुट्ठाणं इह परत्थ य भयंति । -आचारांग चूणि १/१/२ असन्तोषी व्यक्ति को यहाँ-वहाँ सर्वत्र भय रहता है । सन्तोषो संतोसिणो ण पकरेंति पावं । -सूतकृतांग १/१२/१५ सन्तोषी व्यक्ति पाप नहीं करते । सत्संग कलुसी कदंपि उदयं अच्छं जह होइ कदय जोएण। कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुड्ढ सेवाए । -भगवती आराधना १०७३ जैसे मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ होता है वैसे ही कलुष मोह शील भी वृद्धों की संगति से उपशान्त हो जाता है । सद्गुण कंखे गुंणे जाव सरीर-भेओ। -उत्तराध्ययन ४/१३ जब तक शरीर न छूट जाय अर्थात् जीवन के अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की आकांक्षा करनी चाहिए। सद्व्यवहार खुड्डेहि सह संसरिंग हासं कीडं च वज्जए। -उत्तराध्ययन ?/8 क्षुद्र व्यक्तियों के साथ सम्पर्क, हँसी, मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं करना चाहिए। सफलता काले चरंतस्स उज्जमो सफलो भवति । ___-आचारांगनियुक्ति १/५/४ उचित समय पर काम करने वाले का श्रम सफल होता है। सम्यक्त्व मा कासि तं पमादं, सम्मत्त सव्वदुक्ख णासयरे । -भगवती आराधना ७३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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