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________________ ४७८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सम्यक्त्व सभी दुःखों का नाश करने वाला है, अतः इसके उपार्जन में प्रमादी मत बनो। सम्यग्दर्शन समत्तदंसी न करेइ पावं । -आचाराँग १/३/२ सम्यग्दर्शी कभी पाप किसी का अशुभ नहीं करता। . . सम्यग्दृष्टि हेयाहेयं च तहा, जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी। -सूत्रपाहुड ५ ___जो हेय और उपादेय (त्यागने और ग्रहण करने योग्य) को जानता है, वही सम्यग्दृष्टि (सत्य दृष्टि) है । सरलता सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। -उत्तराध्ययन ३/१३ जो ऋजु होता है, वही शुद्ध हो सकता है और शुद्ध हृदय में ही धर्म टिक सकता है। साधनहीन मानव उवगरणेहि विहूणो, जहवा पुरिसो न साहए कज्ज । -व्यवहारभाष्य पीठिका १०/५४० साधनहीन पुरुष अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है। सुख-दुःख विरत्त चित्तस्स सयाऽवि सुक्खं । रागाणुरत्तस्स अईव दुक्खं ।। एवं मुणित्ता परमं हि तत्तं । नीरागमग्गम्मि धरेह चित्त ॥ -संबोध सत्तरि ६ जिसका चित्त (सांसारिक सुख-भोगों से) विरक्त होता है, उसे सदा सुख ही सुख है और राग (सांसारिक राग) में रंगे हुए चित्त वाले प्राणी को अत्यधिक दुःख है। इस परम तत्व पर मनन करके वीतराग मार्ग में चित्त को स्थिर करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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