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________________ ४७६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन : १. हँसी-मजाक नहीं करना, २ . सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना, ३ . किसी का रहस्योद्घाटन न करना, ४ . अशील ( सर्वथा आचारहीन न होना, ५ . निशील ( दोषों से कलंकित ) न होना, ६. अति रसलोलुप न होना, ७. अक्रोधी रहना तथा ८. सत्यरत होना । शील पालिज्ज सीलं पुण सव्व कालं । शील का सदैव पालन करना चाहिए । नियमित्तं नियभाया, नियजणओ निय पियामहो वावि । नियपुत्तो वि कुसीलो, न वल्लहो होइ लोआणं ॥ - शील कुलक १७ चाहे अपना मित्र हो, भाई हो, पितामह हो अथवा अपना पुत्र ही हो, यदि वह कुशील (कुत्सित शील वाला) है तो उसको कोई नहीं चाहता, वह किसी का प्रिय नहीं हो सकता । सीलं उत्तमवित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परम । सीलं दोहग्गहरं, सीलं सुक्खाण कुलभवणं ।। - शीलकुलक २ शील ही उत्तम धन है, शील ही समस्त दुख-दारिद्र्य को नाश करता है और शील ही समस्त सुखों का धाम है । श्रमण-धर्म - उपदेशसप्ततिका २ खंतो अ मद्दवऽज्जव, विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धी अ होंति भिक्खुस्स लिगाई || - दशवैकालिक नियुक्ति ३४६ क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-- ये भिक्षु (साधु-श्रमण) के चिन्ह हैं । सज्जन दीणं अब्भुद्धरिउं पत्ते सरणागए काउं अवरद्ध ेसु विखमिउं सुयणो च्चिय नवरि जाणेइ || Jain Education International - वज्जालग्ग ४ / १३ दीनों का उद्धार करना, शरण में आये हुओं का प्रिय (कल्याण) करना; अपराधियों को भी क्षमा कर देना - सज्जन ही जानता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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