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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४७५ वाणी-विवेक मियं अदुटुं अणुवीए भासए, सयाणमज्झे लहइ पसंसणं । -दशवकालिक ७/५५ परिमित, निर्दोष और विचारपूर्वक वचन बोलने वाला सत्पुरुषों में प्रशंसा प्राप्त करता है। तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नो वये ।। -दशवैकालिक ७/१२ काणे को काणा, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा कहना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसे वचनों से उनका दिल दुःखता है । विनय विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो। -उत्तराध्ययन १/६ यदि आत्मा का (अपना) हित चाहते हो तो स्वयं को विनय (सदाचार) में स्थापित करो। हिय-मिय-अफरुसवाई, अणुवीइ भासि वाइओ विणओ। -दशवकालिकनियुक्ति ३२२ हित, मित, नम्र (अकर्कश) और विचारपूर्वक बोलना—यह वचन विनय है। विगएण विप्पणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा । विणओ सिक्खाए फ़लं विणयफलं सव्वकल्लाणं ।। -जीवण ववहारो १६/५५ विनयहीन व्यक्ति की समस्त शिक्षा निरर्थक हो जाती है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का परिणाम सबका कल्याण है । शिक्षाशोल अह अटेहि ठाणेहि, सिक्खासीले त्ति वुच्चइ । अहिस्सरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे ।। नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, स सिक्खासीले त्ति वुच्चई ॥ -उत्तराध्ययन (११/४,५) इन आठ स्थितियों या कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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