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गुण-दर्शन
परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ | ४६७
या दोसेच्चि गेहह विरले वि गुणे पयासह जणस्स । अक्ख - पउरो वि उही, भण्णइ रयणावरो वि लोए ।।
—कुवलयमाला
लोगों के दोषों को ग्रहण मत करो, उनके विरले गुणों को भी प्रकाशित करो। क्योंकि घोंघों की प्रचुरता वाला समुद्र भी लोक में रत्नाकर कहलाता है ।
गुणानुराग
जइ वि चरसि तवं विउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकट्ठाई । न धरसि गुणाणुरायं, परेसु ता निष्फलं सयलं ॥ - गुणानुरागकुलक ५ यद्यपि तुम विपुल तप करते हो, श्रुत का अध्ययन करते हो, भाँतिभाँति के कष्टों को सहन करते हो किन्तु यदि तुम दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग नहीं करते हो तो ये सब निष्फल हैं ।
गुरुकुलवासी
जस्स गुरुम्मि न भत्ती न नवि लज्जा न वि नेहो,
तितिक्षा
जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है न बहुमान है, न गौरव है, न भय है, न अनुशासन है, न लज्जा है और न स्नेह ही है, उसका गुरुकुल में रहने से क्या प्रयोजन है ?
चारित्र
य बहुमाणो गउरखं न भयं । गुरुकुलवासेण किं
तस्स ॥
→ उपदेशमाला ७५
अहादो विणिवत्ती, हे पवित्तीय जाण चारित्त ।
अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही चारित्र है । जीवन की सुगन्ध
पवित्र विचार ही जीवन की सुगन्ध है ।
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विसुद्ध भावत्तणतोय सुगन्धं ।
दुक्खेण पुट्ठ धुवमायएज्जा ।
--- द्रव्यसंग्रह ४५
- नन्दीसूचूर्णि २ / १३
दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए ।
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— सूत्रकृतांग १/७/२ε
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