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________________ ४६६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन कामासक्त विसयासत्तो कज्ज अकज्ज वा ण याणति । –आचारांगचूणि १/२/४ विषयों में आसक्त मनुष्य को कर्तव्य-अकर्तव्य का परिज्ञान नहीं रहता है। कार्यसिद्धि सुहसाहगंपि कज्ज, करणविहूणं णुवायसंजुत्तं । अन्नायऽदेसकाले, विवत्तिमुवजति सेहस्स ।। -निशीथभाष्य ४८०३ देश, काल एवं कार्य को समझे बिना, समुचित प्रयत्न व उपाय से रहित किया जाने वाला कार्य, सुख साध्य (सरलता से पूर्ण होने वाला) होने पर भी सिद्ध (सफल) नहीं होता। कुसंग दुज्जण संसग्गीए णियगं गुण खु सजणो वि । सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ।। -भगवती आराधना ३४४ जैसे अग्नि के सहवास से शीतल जल भी अपनी शीतलता छोड़कर गरम हो जाता है। उसी प्रकार सज्जन मनुष्य भी दुर्जन की संगति से अपना स्वाभाविक गुण छोड़ देता है । वरं अरण्णवासो अ, मा कुमित्ताण संगओ। -संबोध सत्तरि ५६ कुमित्र की संगति करने से तो वन में निवास करना अच्छा है। क्रोध सुट्ठ वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण । पधिदो वि जसो णस्सदि कूद्धस्स अकज्जकरणेण ।। –आर्हत्प्रवचन ७/३५ क्रोध के कारण मनुष्य का अत्यन्त प्यारा व्यक्ति भी शत्रु बन जाता है। क्रोधी व्यक्ति के अनुचित आचरण से जगत प्रसिद्ध उसका यश भी नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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