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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४६५ उपशम (प्रशांत भाव) से क्रोध पर मृदुता से मान पर, ऋजुता ( सरलता) से माया ( कपट) पर और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करे | अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । हु भेवीससियव्वं, थोवं पिहु ते बहु होई ॥ - आवश्यक नियुक्ति १२० ऋण (कर्ज), व्रण ( घाव ), अग्नि और कषाय - यह थोड़े भी हों तो इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह थोड़े भी समय पाकर बहुत बड़े ( अधिक ) हो जाते हैं । कामना कामा दुरतिकमा । कामनाओं (इच्छाओं) का पार पाना बहुत कठिन है । कामे कमाहि कमियंखु दुक्खं । कामनाओं का परित्याग करो, समझो - दुःख दूर हो गये । काम भोग खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा, अणिगाम सुक्खा । संसार - मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ - आचारांग १/२/५ Jain Education International - दशवैकालिक २/५ - उत्तराध्ययन १४ / १३ कामभोग (इन्द्रिय-सुख) क्षण भर के लिए सुख देते हैं और चिरकाल तक दुःख देते हैं । ये अत्यधिक दुःख देते हैं और बहुत कम सुख देते हैं । यह संसार से मुक्त होने में बाधक हैं और अनर्थों की खान हैं । सव्वगहाणं पभवो, महाग हो सव्वदोसपायट्टी | काम हो दुरप्पा, जेणऽभिभूअं जगं सव्वं ॥ - इन्द्रियपराजयशतक २५ सभी ग्रहों का मूल कारण और सभी दोषों को उत्पन्न करने वाला कामरूपी महाग्रह ऐसा अत्यन्त बलवान है, जिसने सम्पूर्ण जगत जगत के प्राणियों) को अभिभूत कर दिया है, अपने वश में कर रखा है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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