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________________ ४६४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन जिससे कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ आदि) रूप अग्नि प्रज्वलित (प्रदीप्त) होती है, उन (वृत्ति/प्रवृत्ति क्रियाओं) को तुरन्त छोड़ देना चाहिए और जिससे कषायों का उपशमन होता है, उन्हें धारण करना चाहिए । सव्वत्थ वि पियवयणं, दुब्वयणे वि खमकरणं । सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिळंता ।। .. -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ११ सभी से प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलने वाले को भी क्षमा करना और सभी के गुणों को ग्रहण करना-यह लक्षण मंदकषायी व्यक्तियों में दिखाई देते हैं। अप्प-पसंसण-करणं, पुज्जेसु वि दोस गहण सीलत्तं । वेर-धरणं च सुदूरं, तिव्व कसायाण लिंगम् ॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा १२ तीब्र कषायी प्राणियों के तीन लक्षण हैं १ अपनी प्रशंसा करना, २ पूज्य-पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, और ३ दीर्घकाल तक वैर रखना। कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छन्तो हियमप्पणो । -दशवकालिक ८/३६ आत्मा के हित (भलाई)की इच्छा करने वाले व्यक्ति को क्रोध, मान, माया (कपट) और लोभ-इन चारों का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि यह चारों पाप को बढ़ाने वाले हैं। कोहो पीइं पणासेई, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व विणासणो । -दशवकालिक ८/३७ क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय को विनष्ट करने वाला है, माया (कपट) से मित्रता समाप्त हो जाती है और लोभ के कारण ये सभी नष्ट हो जाते हैं। उवसमेण हणे कोहं माणं महवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। -दशवैकालिक ८/३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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