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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४६३ कर्म कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । -उत्तराध्ययन ४/३ किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। कत्तारमेव अणुजाइ कम्म । -उत्तराध्ययन १३/२३ कर्म हमेशा कर्ता का पीछा करता है। जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं ॥ -सूत्रकृतांग १/२/१/४ इस विश्व में जितने भी प्राणी. हैं, सब अपने कृतकों के कारण ही दुःखी होते हैं । उन्होंने जो कर्म किये हैं, जिन संस्कारों की छाप अपने (आत्मा) पर पड़ने दी है, उसका फल भोगे बिना या अनुभव किये बिना उनका छुटकारा नहीं है। जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म तमेव आगच्छति संपराए । -सूत्रकृतांग १/५/२/२३ भूतकाल में जैसा जो कुछ भी कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में सामने आता है। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाइं कहिंचि कम्माइं। कत्थई धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥ -बृहत्कल्पभाष्य २६६० कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं । जैसे कहीं ऋण देते समय धनी बलवान होता है तो कहीं ऋण को चुकाते समय कर्जदार बलवान होता है। कर्मण्यता नियवसणे होह वज्जघडिय। -कुवलयमाला, अनुच्छेद ८५ अपने कार्य में वज्र के समान दृढ़ रहो। __ . तं नियमा मुत्तव्वं जत्तो उपज्जए कसायग्गी । . तं वत्थु धारिज्जा, जेणोवसमो कसायाणं ॥ -गुणानुराग कुलक ११ कषाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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