________________
४६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
दान
-दानकुलकम् ३
दान सुख-सौभाग्यकारी है, परम आरोग्यकारी है, पुण्य का निधान और गुण-समूह का स्थान है ।
दाणं मुक्खं सावयधम्मे
दान देना सद्गृहस्थ का प्रमुख कर्तव्य है ।
दुःख
दाणं सोहग्गरं दानं अरुग्गकारणं परमं । दाणं भोगनिहाणं, दाणं ठाणं गुणगणाणं ॥
दुःख है । दुर्जन
अणिट्ट्ठत्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दुःखं णाम ।
—धवला १३/५,५, ६३/३३४/५ अनिष्ट अर्थ का संयोग और इष्ट अर्थ का वियोग, इस का नाम
- रयणसार ११
Jain Education International
दूरुड्डाणें पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ । जिहगिरिसिंगहुँ पडिअ सिल अन्नुवि चूरू करेइ ।
- है म० प्राकृत व्याकरण, ३३७
जैसे पर्वत शिखर से गिरती हुई शिला स्वयं भी चूर्ण होती है और दूसरों को भी चूर-चूर कर देती है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति स्वयं भी पतित होता हुआ दूर से ही दूसरों को भी नष्ट कर डालता है ।
बीहेदव्वं णिच्चं, दुज्जणवयणा पलोट्ट जिब्भस्स । वरणयरणिग्गमं मिव, वयणकयारं वहंतस्स ॥
- मूलाचार ६६२ जिसकी जिह्वा सदा पलटती रहती है, उस दुर्जन के वचनों से सदा ही डरते रहना चाहिए । दुर्जन की जिह्वा दुर्वचनों को वैसे ही निकालती रहती है, जैसे बड़े नगर का नाला कचरे को बहाता रहता है ।
दुर्लभ
दाणं मग्गण- दव्वं, भांडं, लंचा, सुभासियं वयणं । जं सहसा न य गणियं तं पच्छहा दुल्लहं होइ ||
- कामघट कथानक १०७
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org