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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४५६ न लिप्पई भव मज्झे वि संतो । जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ - उत्तराध्ययन ३२/४७ अनासक्त है, वह संसार में रहकर भी पुष्करिणी में रहता हुआ भी पलाश जो आत्मा विषयों के प्रति उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है, जैसे कमल । किं भया पाणा ? दुक्खभया पाणा । दुक्खे केण कडे ? जीवेण कडे पमाएणं || - स्थानांग ३/२ प्राणी किससे भयभीत रहते हैं ? दुःख से । दुःख किसने किया ? स्वयं आत्मा ने ही अपनी भूल से । एगो सयं पच्चणु होइ दुक्खं । Jain Education International - सूत्रकृतांग १/२/५/२२ स्वकृत दुःखों को आत्मा अकेला ही भोगता है । अप्पा खलु सययं रक्खियन्बो, सब्बिदिएहि सुसमाहिएहि । अरक्खिओ जाइपहं, उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ - दशवैकालिक चूलिका २ / १६ सभी इन्द्रियों को सुसमाहित (अपने वश में) करके आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए । अरक्षित आत्मा जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करता है और सुरक्षित आत्मा सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है । आत्मौपम्य सव्वायरमुवइत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं । —भक्तपरिज्ञा ६३ पूर्ण आदर और सावधानी पूर्वक आत्मौपम्य की भावना से सब जीवों पर दया करनी चाहिए । सव्वभूयप्प भूपयस्स, सम्मं भूयाई पासओ । पिहियासवस्स दन्तस्स पावकम्मं न बंधई ॥ - दशवे ४ / ६ जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, उसे पाप कर्म का बन्धन नहीं होता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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