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________________ ४६० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन आपत्तिकाल अत्थमणे न छंडिज्जइ नूनं सूरो वि निययकिरणेहिं । पुरिसस्स वसणकाले देहुप्पन्ना वि विहंडति ॥ -गाहारयणकोष ८१२ अस्त के समय सूर्य की किरणें भी सूर्य को छोड़ जाती हैं। (सच ही है) पुरुष को आपत्तिकाल में उसके आत्मज (पुत्र) भी उसे छोड़ देते हैं। आलस्य नालस्सेण समं सुक्खं -बृहत्कल्पभाष्य ३३८५ - आलस्यरहित होने के समान सुख नहीं है। आहार-विचार हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जातिगच्छन्ति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा। - ओघनियुक्ति ५७८ जो व्यक्ति हिताहारी, मिताहारी और अल्पाहारी है, उसे किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं ही अपना वैद्य है। आहार-विवेक मोक्खपसाहणहेतु, णाणादि तप्पसाहणो देहो । देहट्टण आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ।। -निशीथभाष्य ४१५६ ज्ञान आदि मोक्ष के साधन हैं और ज्ञानादि का साधन शरीर है तथा शरीर का साधन आहार है । इसलिए व्यक्ति को समय के अनुसार भोजन करना चाहिए। इन्द्रिय-दमन जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदियाइं तवं चरंतस्स ।। सो हीरइ असहीणेहिं सारही व तुरंगेहि ॥ . -दशवकालिकनियुक्ति २६८ जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ कुमार्गगामिनी हो गई हैं, वह दुष्ट घोड़ों के वश में पड़े सारथि के समान उत्पथ (कुमार्ग) में भटक जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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