SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्ठियो अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पसुहावहं होई ॥ - सार्थपोसहसज्झाय सूत्र २२ आत्मा ही आत्मा (स्वयं अपने ) के शुभ-अशुभ परिणामों (भावोंमानसिक विचारों) को जानता है । इसलिए हे आत्मन् ! अपनी आत्मसाक्षी से जो धर्मकार्य किया जाता है, वही आत्मा के लिए सुखप्रद होता है । आत्मा पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्त', किं बहिया मित्तमिच्छसि ? - आचारांग १/३/३ हे मानव ! तू ही तेरा मित्र है । बाहर के किसी मित्र की इच्छा क्यों करता है ? अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे । - भगवती सूत्र १७ / ५ दुःख किसी अन्य का किया हुआ नहीं है, स्वयं आत्मा द्वारा ही किया हुआ है । सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावंति हवदि जीवस्स । - पंचास्तिकाय १३२ आत्मा का शुभ परिणाम (विचार) पुण्य और अशुभ परिणाम (विचार) पाप है । अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त ं च, दुपट्ठिय सुपट्ठिओ ॥ आत्मा ही सुख और दुख का कर्ता और लौन आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति शत्रु है । Jain Education International पट्ठचित्तो य चिणाइ जं से पुणो होइ दुहं उसके लिए दुःख रूप फल देने वाले होते हैं । - उत्तराध्ययन २० / ३७ भोक्ता है । सत्प्रवृत्ति में में लगी हुई आत्मा ही -उत्तराध्ययन ३२ / ४६ रागद्वेष से कलुषित होकर आत्मा कर्मों का संचय करता है जो कम्मं । विवागे || - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy