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________________ आत्म-विजय परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४५७ अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पाहु खलु दुद्दमो । अप्पात सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥ - उत्तराध्ययन १/१५ प्रत्येक व्यक्ति (प्राणी) को अपनी आत्मा ( अशुभ विचार और कार्य करने वाली आत्मा) का नियन्त्रण करना चाहिए । ( ऐसी अनीति प्रवृत्त) आत्मा पर नियन्त्रण करना यद्यपि कठिन है । किन्तु आत्म नियन्त्रण करने वाला आत्मविजेता मानव इस लोक परलोक दोनों में सुखी होता है । और वरं मे अप्पा दन्तो, माहं परेहिं दम्मन्तो, संजमेण तवेण य । बन्धणेहिं वहेहि य ॥ - उत्तराध्ययन १ / १६ अच्छा यही कि मैं स्वयं संयम (अनुशासन) और तप के द्वारा अपनी आत्मा ( अशुभ इच्छा करने वाली आत्मा ) का दमन (नियन्त्रण) कर लू अन्यथा दूसरे लोग बन्धन ( दण्ड ) और वध (ताड़ना, प्रतारणा, तिरस्कार) द्वारा मेरा दमन करेंगे । (यह मेरे लिए उचित नहीं होगा ।) अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ । अपणामेव अप्पाणं; जइत्ता सुमेह || - उत्तराध्ययन ६ / ३५ बाहरी शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ? अपनी आत्मा ( अशुभ / अनैतिक आत्मा) के साथ ही युद्ध कर । आत्मा (अशुभ आत्मा ) को आत्मा (शुभ / शुद्ध आत्मा) के द्वारा जीतने वाला ही वास्तविक सुखी होता है । आत्म- साक्षी Jain Education International किं पर जण बहुजाणा, वणाहि वरयप्प सक्खियं सुकयं । - सार्थंपोसहसज्झाय सूत्र १६ बनने के लिए धर्म ( धर्मकार्यं - वह निरर्थक है । इसलिए आत्म अन्य लोगों की दृष्टि में धार्मिक क्रियाएँ तथा अनुष्ठान ) किया जाता है, साक्षी से धर्म करना श्रेष्ठ है और शुभ फलदायक है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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