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________________ ४५६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन भणन्ता अकरेन्ता य, बन्धमोक्खो पइण्णिणो। वायाविरियमेत्तण समासासेन्ति अप्पयं ॥ - उत्तराध्ययन ६/8 जो केवल बोलते हैं, करते कुछ नहीं, वे बन्ध और मोक्ष की बातें करने वाले व्यक्ति केवल वाणी की वीरता से अपने आपको आश्वासन देने वाले हैं। आत्मदर्शन जो जाणइ अप्पाणं, अप्पाणं सो सुहाणं न हु कामी। पत्तम्मि कप्परुक्खे, रुक्खे किं पत्थणा असणे ॥ -आत्मावबोध कुलक ४ जो अपनी आत्मा को जानता है, वह सांसारिक सुखों का इच्छुक नहीं होता। जिसे कल्पवृक्ष प्राप्त हो गया है, क्या वह अन्य वृक्षों की प्रार्थना करेगा ? अर्थात् कभी नहीं करेगा। आत्म-प्रशंसा वायाए जं कहणं गुणाणं तं णासणं हवे तेसिं । होदि हु चरिदेण गुणाण कहण मुब्भावणं तेसि ।। -अर्हत्प्रवचन ६/७ वचन से अपने गुणों को कहना, उन गुणों का नाश करना है और आचरण से उन गुणों को प्रगट करना, उनका विकास करना है। अप्पपसंसं परिहरह सदा मा मोह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुदो होदि हु जाणम्मि ॥ -भगवती आराधना ३५६ मानव को अपनी प्रशंसा करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिए, क्योंकि अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से उसका यश नष्ट हो जायेगा। अतः जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है, वह जगत में तृण के समान तुच्छ होता है। मा अप्पयं पसंसइ जइवि जसं इच्छसे धवलं । लयमाला यदि निर्मल यश की इच्छा है तो अपनी प्रशंसा मत करो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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