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________________ परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियां | ४५५ सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविओ, जीविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं । -आचारांग १/२/३/४ प्राणीमात्र को अपना जीवन प्रिय है। सुख, सबको अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल । वध (मरण) सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं। इसलिए किसी भी प्राणी की घात-हिंसा नहीं करनी चाहिए। आयओ बहिया पास -आचारांग १/३/३ अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख। सव्वओवि नईओ, कमेण जह सायरंमि निवडंति । तह भगवई अहिंसा, सव्वे धम्मा समिल्लं ति ॥ __ --सम्बोध सत्तरि ६ जिस प्रकार सभी नदियाँ सागर में मिलती हैं उसी प्रकार भगवती अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश होता है । अहिंसा तस थावर सव्वभूय खेमंकरी। -प्रश्नव्याकरण सूत्र २/१ अहिंसा सभी प्राणियों (चलते-फिरते और स्थित प्राणी) का कुशल क्षेम करने वाली है। रागादीणमणुप्पाओ अहिंसकत्त। -जयधवला १/४२/६४ राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और इनकी (रागादि की) उत्पत्ति हिंसा है। असुभो जो परिणामो सा हिंसा । -विशेषावश्यकभाष्य १७६६ जीव (प्राणियों) का अशुभ परिणाम (भाव) हिंसा है। आचरण सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निव्वाणं । –आचारांगनियुक्ति १७ प्ररूपणा (उपदेश) का सार आचरण है, जिस से निर्वाण (मुक्ति) होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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