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४५४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
बुज्झइ से अविणीयप्पा, कळं सोयगयं जहा।
-दशवकालिक ६/२/३ अविनीतात्मा संसार-स्रोत में उसी तरह प्रवाहित-बहता रहता है, जैसे नदी के स्रोत में गिरा हुआ काष्ठ । अहंकार माणविजए णं मद्दवं जणयई।
.. -उत्तराध्ययन २६/६८ अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेने से नम्रता उत्पन्न होती है। अन्नं जणं खिसइ बालपन्ने ।
-सूत्रकृतांग १/१३/१४ जो अपनी प्रज्ञा के अभिमान में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह बाल प्रज्ञ (मूर्ख) है। माणेण अहमा गई
--उत्तरा. ६/५४ अहंकार करने वाले की अधोगति (पतन) होती है। जो अवमाणकरणं, दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो । सो णाम होदि माणी, ण दु गुणचत्रोण माणेण ।।
__ -भगवती आराधना १४२६ जो दूसरों को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक परिहार करता है, वही यथार्थ में मानी है। गुणशून्य अभिमान करने से कोई मानी नहीं होता।
माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलह भय वेर दुक्खाणि । पावदि माणी णियदं इह-परलोए य अवमाणं ॥
-अर्हत्प्रवचन ७/३६ अभिमानी व्यक्ति सबका शत्र हो जाता है। उसे इस लोक और परलोक में कलह, भय, वैर, दुःख और अपमान अवश्य ही प्राप्त होते हैं । अहिंसा धम्ममहिंसासमं नत्थि ।
-भक्त परिज्ञा ६१ अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है । जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।
भक्तपरिज्ञा ६३ किसी भी दूसरे जीव का वध वास्तव में अपना ही वध है और दूसरे जोव को दया, अपनी दया है ।
माना
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