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________________ ४४८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन वज्जिज्जा तेनाहड तक्कर जोगं विरुद्ध रज्जं च । कूडतुल-कूडमाणं तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ -सावय पण्णत्ति २६८ चोरी का माल खरीदना, तस्करी करना, राजाज्ञा का उल्लंघन करना, नाप-तोल में गड़बड़ करना तथा मिलावट करना-यह सब चोरी के समान वर्जनीय हैं। अद्वेष न विरुज्झज्ज केणवि -सूत्रकृतांग १/११/१२ किसी के भी साथ वैर-विरोध न करें। अनासक्ति असंसत्तं पलोइज्जा -दशवैकालिक ५/१/२३ ललचाई दृष्टि से किसी भी वस्तु को नहीं देखें। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स स देवगस्स, जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छति वीयरागो। -उत्तराध्ययन ३२/१६ संसार के समस्त जीवों के, यहाँ तक कि देवों के भी जो कुछ शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से ही उत्पन्न होते हैं । अना सक्त पुरुष ही उनका अन्त कर पाता है । तण कठेहि व अग्गी, लवणजलो व नई सहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेउं ॥ -आतुर प्रत्याख्यान ५० जिस तरह तृण काष्ट (लकड़ी) से अग्नि और हजारों नदियों के जल से लवण समुद्र (विराट् सागर) तृप्त नहीं होता, उसी तरह आसक्ति वाला प्राणी काम-भोगों से तृप्त नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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