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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ | ४४६
अनुकम्पा
जो उ परं कंपंतं, ठूण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो, अणुपच्छा भाव जोएणं ॥
-बृहत्कल्पभाष्य १३२० जो कठोर भावों वाला व्यक्ति दूसरों को कष्ट से कांपते हुए देखकर भी मन में प्रकम्पित नहीं होता, वह अनुकंपारहित कहलाता है। क्योंकि अनुकम्पा का अर्थ ही है-काँपते हुए को देखकर कम्पित होना । (दुखी को देखकर दया होना ।)
तिसिवं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दळूण जो दु दुहिदमणो। पडिबज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकम्पा ॥
-पंचास्तिकाय गा. १३७ तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुःखी को देखकर जो मानव मन में खिन्नता अनुभव करता हुआ उसके प्रति करुणापूर्वक व्यवहार करता है, उसका वह आचरण अनुकम्पा है।।
ववसायफलं विहवो विहवस्स य विहलजलसमुद्धरणं । विहलुद्धरणेण जसो जसेण भण किं न पज्जत्तं ॥
-वज्जालग्ग १०/१० व्यवसाय-पुरुषार्थ का फल विभव (वैभव) है और विभव का फल है-विह्वल जनों—(अभावग्रस्त) का उद्धार । विह्वल जनों के उद्धार से यश की प्राप्ति होती है और यश से कहो संसार में क्या नहीं मिलता ? अर्थात् सब कुछ मिलता है।
बाला य वुड्ढा य अजंगमा य, लोगेवि एते अणुकम्पणिज्जा।
-बृहत्कल्पभाष्य ४३४२ बालक, वृद्ध और असमर्थ (चलने-फिरने के अयोग्य-अपंग) व्यक्ति, विशेष अनुकम्पा के योग्य होते हैं।
मा होह णिरणुकम्पा ण वंचया कुणह ताव संतोसं । माणत्थद्धा मा होह णिक्किपा होह दाणयरा ॥
-कुवलयमाला, अनुच्छेद ८५ अनुकम्पा से रहित मत होओ, कृपा से रहित मत बनो, किन्तु संतोष करो, घंमड में दृप्त मत होओ, अपितु दान में तत्पर बनो।
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