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समस्याओं के समाधान में जैन नीति का योगदान | ४३७
विशिष्ट ज्ञानी होने के कारण ये भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञाता होते हैं, नैतिक आचरण उनकी सहज वृत्ति बन जाता है ।
(२) श्रुत व्यवहार-धर्मशास्त्रों के दृष्टिकोण से आठ और नौवें (अपूर्ण) पूर्व के ज्ञाता साधकों द्वारा आचरित या प्रतिपादित मर्यादाएँ, व्यवहार श्रुतव्यवहार कहलाता है। इनका संकलन आयार दशा, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र में भी हुआ है, अतः इन ग्रन्थों में उल्लिखित व्यवहार भी श्रुतव्यवहार ही है।
जैन नीति का भी अभिप्राय ऐसा ही है । अपने किसी भी कार्य की नैतिकता अथवा अनैतिकता के निश्चय के लिए व्यक्ति इन ग्रन्थों में उल्लिखित सिद्धान्तों को प्रामाणिक मानकर अपने व्यवहार का निर्णय कर सकता है।
(३) आज्ञाव्यवहार-धर्म सम्बन्धी व्यवहारशास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि किसी विशिष्ट विषय अथवा व्यवहार/आचरण की धर्मानुमोदना के विषय में शास्त्रों के विशेषज्ञ (गीतार्थ) की आज्ञा प्रमाण रूप से स्वीकार कर लेनी चाहिए । गीतार्थ का अभिप्राय उस विषय के विशिष्ट अधिकारी विद्वान से है।
नैतिक आचरण की ओर गति/प्रगति करने वाले व्यक्ति के हृदय में भी जब अपने किसी आचरण की नैतिकता के बारे में सन्देह उत्पन्न हो जाय तो उसे भी किसी अधिकारी विद्वान (नीति सम्बन्धी जिसका ज्ञान और आचरण परिपक्व हो) से निर्णय करा लेना चाहिए और उसकी आज्ञानुसार आचरण करना चाहिए।
(४) धारणा व्यवहार-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का विचार करके विशेषज्ञ-गीतार्थ श्रमण ने जो निर्णय दिया हो, उसकी धारणा करके वैसा ही निर्णय उन स्थितियों में करना।।
व्यक्ति के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाय कि उसके द्वारा किये गये आचरण/व्यवहार की नैतिकता को पुष्ट करने वाले प्रमाण न उपलब्ध हो सकें तो उसे अपनी नीति सम्बन्धी धारणा के अनुसार निर्णय कर लेना चाहिए। .
१ तुलना करिएमहाजनाः येन गताः स पंथाः ।
.-महाभारत
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