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________________ ४३६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन से ऐसी स्थिति न उत्पन्न हो सके इसके जैन-नीति ने दो उपाय बतायें हैं-दान एवं त्याग । दान एक ऐसी सरिता का रूप है, जिसमें धन कभी संचित नहीं हो पाता, समाज व राष्ट्र में बहता रहता है। जैन-नीतिज्ञों ने तो दान को धन का उज्ज्वल करने वाला कहा है। दान के आगे की सीमा है त्याग ! इसमें इच्छाओं को सीमित करने तथा असीमित धन संपत्ति को विसर्जन करने का विधान है। जिसे 'इच्छा परिमाण व्रत' कहा है। इस प्रकार जैन-नीति ने मानव की प्रत्येक समस्या का समुचित समाधान दिया है । इन नीतिवचनों का आचरण करने वाले मानव को कभी अभाव या कष्ट का अनुभव नहीं हो सकता, उसके जीवन में सुख-शांति की सरिता बहती रहेगी, उमंगों के सुमन खिलते रहेंगे, आनन्द की बहारों में वह झूमता रहेगा। जैन-नीति की विश्व को अनुपम देन (Unique Legacy of Jaina Ethics to World) जैन-नीति ने कुछ ऐसे नैतिक प्रत्यय विश्व-मानव को दिये हैं, जो इसके अपने विशिष्ट तो हैं ही, साथ ही मानवता की उन्नति, प्रगति और सुख-शांति के लिए अनिवार्य हैं। नैतिक निर्णय के आधार नैतिक निर्णय व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या रही है। उसका अमुक कार्य नैतिक है अथवा अनैतिक या नीतिविरोधी-इसका निर्णय करना सबके लिए कठिन रहा है । यह समस्या प्राचीन काल में भी थी, आज भी है और संभवतः आगे भी रहेगी। ____इस समस्या के व्यावहारिक समाधान के लिए जैन नीतिकारों ने पाँच प्रकार के आधार बताए हैं। आगमों में इन पाँच आधारों को आचारव्यवहार कहा है । वे हैं (१) आगम व्यवहार-धर्मशास्त्रों की दृष्टि से केवलज्ञानियों, मनः पर्यवज्ञानियों, अवधिज्ञानियों और नौ-दस-चौदह पूर्वधारियों का आचार, इनके द्वारा किया हुआ आचरण आगम व्यवहार कहलाता है। जैन नीति की दृष्टि भी लगभग यही है । इसका कारण यह है कि उपरोक्त विशिष्ट व्यक्तियों का आचरण नीतिसम्मत ही होता है, क्योंकि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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