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________________ ४१४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन डले इन कर्तव्यों को स्थान द्वारा निश्चयात्मक रूप से निर्धारित कर्तव्य कहता है और प्रेरणा देता है कि व्यक्ति को इन कर्तव्यों का पालन व्यक्तिगत सर्वोच्च शुभ और सर्वोच्च सामान्य शुभ को सिद्धि / प्राप्ति के लिए करना चाहिए | इस सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति का उपाय कार्लाइल ने इन शब्दों में बताया है - " जो कर्तव्य तुम्हारे सबसे निकट है उसका पालन करो" और "जिस कार्य को तुम कर सकते हो उसको जानो और हरक्युलिस के तुल्य उस में जुट जाओ ।" इस सर्वोच्च कर्तव्य को मैकेंजी ने भी स्वीकार किया है । वह कहता है - "यह वह आदेश है जो हमें बुद्धिमय आत्मा और तत्सम्बन्धी मूल्यों के लाभ की आज्ञा देता है ।" मैकेंजी के इन शब्दों में बुद्धिमय आत्मा और उसमें गर्भित मूल्यों की प्राप्ति की प्रेरणा है । और मैकेंजी दोनों के विचारों को सामान्य और विशिष्ट सिद्धान्त ( G. S. Theory) के अन्तर्रात वर्गीकृत किया जा सकता है । सामान्य सर्वोच्च शुभ के अन्तर्गत व्यक्ति के सभी नैतिक कर्तव्य परिगणित किये जा सकते हैं जो समाज, राष्ट्र, परिवार, मानव जाति से सन्दर्भित हैं और व्यक्तिगत सर्वोच्च शुभ के अन्तर्गत आत्मिक उन्नति सम्बन्धी सभी नैतिक कर्तव्यों को सम्मिलित किया जा सकता है । जैन नीति मैकेंजी के बुद्धिपरकतावाद बुद्धिमय आत्मा की सीमा से ऊपर उठकर सर्वोच्च नैतिक शुभ का लक्ष्य ज्ञानमय आत्मा और उसमें अन्तर्निहित मूल्यों की प्राप्ति स्वीकार करती है । दण्ड (Punishment) दण्ड किसी भी व्यक्ति को कर्तव्यों के अपालन अथवा उल्लंघन के फलस्वरूप दिया जाता है । यह प्रस्तुत अध्याय में पूर्व ही बताया जा चुका है कि कर्तव्य का प्रत्यय उभयमुखी है । जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन उचित ढंग से करता है उसे अधिकार, प्रशंसा आदि प्राप्त होते हैं और वह नैतिक प्रगति करता है, समाज में उसको सम्मान्य स्थान प्राप्त होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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