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अधिकार - कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४१३
को स्वच्छ बनाते हैं, कार्बन डाई आक्साइड को सोखकर ओक्सीजन उत्सजित करते हैं, जो मानव को जीवित रहने के लिए अति आवश्यक है । साथ ही ये मेघों को आकर्षित करते हैं, इनके कारण बरसात होती है, भूमि में नमी रहती है और भूमि का कटाव रुकता है, अच्छी फसल उत्पन्न होती है।
इन सभी कारणों से नव्य नैतिकवादी ड्यूई आदि ने वृक्ष संरक्षण को मानव के नैतिक कर्तव्यों में प्रमुख स्थान दिया है ।
(३) आत्मा के प्रति कर्तव्य - कुछ विद्वानों ने इसे ईश्वर के प्रति कर्तव्य कहा है और इसमें नित्य देवार्चन आदि को सम्मिलित किया है ।
किन्तु वास्तविक रूप में ये स्वयं अपनी आत्मा के प्रति कर्तव्य हैं, देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा भक्ति, इष्ट मन्त्र के जाप आदि जितने भी अनुष्ठान हैं उनसे व्यक्ति की स्वयं की आत्मा की उन्नति होती है, उसमें नैतिक साहस और आत्मबल बढ़ता है । व्यक्ति को सच्चाई, अहिंसा आदि पर दृढ़ रहने की शक्ति उपलब्ध होती है ।
ये सभी आत्मिक लाभ हैं, इसीलिए इन सबको आत्मा के प्रति कर्तव्यों यहां परिगणित किया है ।
इन आत्मिक कर्तव्यों की प्रेरणा जैन श्रमण वर्ग भी मानव मात्र को देते हैं ।
कर्तव्यों के विषय में ब्रेडले ( Bradley ) ने एक नई बात कही है । उसका कथन है मेरा स्थान और उसके कर्तव्य (My station and its duties) । स्थान से उसका अभिप्राय व्यक्ति विशेष की विशष्ट स्थिति से है ।
वह प्रत्येक मानव के तीन प्रकार के कर्तव्य मानता है - ( १ ) व्यक्ति - गत (२) सामाजिक और (३) स्थिति विशेष से सम्बन्धित ।
व्यक्तिगत और सामाजिक कर्तव्य तो वही हैं, जिनका उपर्युक्त पंक्तियों में विवेचन हो चुका है; विशेष स्थिति से सम्बन्धित वे कर्तव्य हैं जो व्यक्ति को विशिष्ट स्थिति में करने पड़ते हैं ।
उदाहरणार्थ- कोई जन नेता यदि मंत्री बन जाता है तो उसके कर्तव्यों में परिवर्तन हो जाता है, उसे मंत्री पद से सम्बन्धित कार्य करने पड़ते हैं । यही स्थिति एक क्लर्क के मैनेजर बन जाने पर उपस्थित होती है, उसके क्लर्क सम्बन्धी कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं और मैनेजर सम्बन्धी कर्तव्य (Pertaining to management) प्रारम्भ हो जाते हैं ।
यह स्थिति सभी क्षेत्रों में समुत्पन्न होती है । जैसे - परिवार में बालक के कर्तव्य, पिता बनते ही भिन्न हो जाते हैं ।
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