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________________ अधिकार-कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४०५ कर्तव्य है कि अन्य प्राणियों के जीवन का सम्मान करे, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न दे, उनके जीवन का हनन न करे, उनके जीवन की रक्षा करे । जैन नीति का तो यह आधारबिन्दु ही है। कहा गया है कि किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन न करे, उन पर अनुचित अनुशासन न करे, उनको अपने अधीन न बनाये, उन्हें परिताप न दे और किसी प्रकार का उपद्रव न करे। इस प्रकार जैन नीति के इन शब्दों में प्राणी मात्र के जीवन और जीवन से सम्बन्धित सभी बातों के प्रति स्पष्ट शब्दों में सम्मान बता दिया गया है। (२) चरित्र का सम्मान (Respect of Character) नीति का यह कर्तव्य बहुत ही महत्वपूर्ण है । यहाँ चरित्र का अभिप्राय सच्चरित्र है । सच्चरित्र का सम्मान समाज में नैतिक वातावरण का प्रसार करता है। हीगेल ने कहा है-व्यक्ति बनो, और दूसरे को भी व्यक्ति समझकर उसका सम्मान करो । व्यक्ति बनने से हीगेल का अभिप्राय अच्छे व्यक्ति से है । अतः मानव मात्र का कर्तव्य है कि स्वयं नैतिक आचरण करे और अन्य व्यक्तियों को नैतिक बनने में सहायक बने । (३) सम्पत्ति का सम्मान (Respect of Property) . जिस प्रकार व्यक्ति को संपत्ति-सुरक्षा का अधिकार है, उसी प्रकार उसका कर्तव्य है कि अन्य व्यक्तियों की सम्पत्ति का सम्मान करे। सम्पत्ति के सम्मान में सम्पत्ति का अपहरण और दुरुपयोग न करना .-दोनों ही बातें सन्निहित हैं । अपहरण दूसरे की सम्पत्ति का किया जाता है । ऐसी सम्पत्ति किसी व्यक्ति की भी हो सकती है और जाति, समाज, राष्ट्र, धार्मिक और समाजसेवी संस्था की भी। ___अपहरण के लिए नीति और धर्म में चोरी शब्द दिया गया है। और चोरी करना पाप है, अनैतिकता है। दुरुपयोग अपनी सम्पत्ति का भी किया जा सकता है और दूसरों की सम्पत्ति का भी । दुर्व्यसन आदि में अपनी उपार्जित अथवा पैतृक सम्पत्ति २. सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न पारियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा -आचारांग सूत्र १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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