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अधिकार-कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४०३
यदि उस सम्पत्ति का कोई व्यक्ति अपहरण करता है, छीनता है, चुराता है तो समाज उसे धिक्कारता है और राज्य उसे दण्डित करता है ।
लेकिन नीतिशास्त्र संपत्ति संरक्षण के अधिकार को असीमित नहीं मानता, क्योंकि एक जगह अथवा एक व्यक्ति के पास असीमित सम्पत्ति के संचय का परिणाम अन्य लोगों को अभाव और कष्ट के रूप में सामने आता है । अभावग्रस्त व्यक्तियों में असन्तोष भड़कता है, वर्ग-संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो समाज की नैतिकता में बाधक बनती है।
___ अधिक गरीबी और अधिक सम्पन्नता दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति को अनैतिक आचरण की ओर धकेलती हैं।
जैन नीति ने इस विषय में दो उपाय सुझाये हैं-प्रथम, स्वयं अपनी सम्पत्ति की इच्छा को वश में रखना, अधिक लोभ-लालच में न फँसना; क्योंकि ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता है और इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं, जिनकी पूर्ति नहीं की जा सकती।
दूसरा उपाय है दान का; समाज सेवा और लोकोपकार के कार्यों में धन व्यय करने का । इससे अधिक सम्पत्ति का संचय नहीं हो पाता । सरोवर के जल की भाँति सम्पत्ति का संचय का आगमन-निगमन चलता रहता है।
मार्क्स ने आर्थिक बचत (Surplus Theory of Money) के सिद्धान्त को विवेचित करते हुए कहा है कि यह अधिक धन राज्य का है, राज्य ही उसका स्वामी है । इस प्रकार वह व्यक्ति के सम्पत्ति के अधिकार को स्वोकार नहीं करता । जबकि पूंजीवादी अर्थशास्त्री व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार को स्वीकृत करते हुए पूँजी को व्यापार में निवेशित करने की सिफारिश करते हैं; जिससे देश की और सम्पूर्ण देश-वासियों की आर्थिक उन्नति एवं प्रगति होती रहे।
लेकिन धर्मशास्त्र-सभी धर्म दान को उचित मानते हैं । इस्लाम द्वारा निर्धारित जकात, ईसामसीह द्वारा कथित Charity आदि ये सभी धन के संचय की समाजीकरण की विधियां हैं।
१ जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । २ इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।
-~~-उत्तरा. ८/१७ - उत्तरा. १/४८
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