SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन घोर युद्ध में भी चिकित्सालयों पर आक्रमण नहीं किया जाता। यदि निशाना चूकने से कोई बम अस्पताल पर पड़ भी जाय तो सारा संसार उसकी भर्त्सना करता है । जैन दृष्टि से भी नीरोगता को प्रमुख माना गया है । वहाँ भक्त प्रभु की प्रार्थना करता हुआ आरोग्य - लाभ प्रदान की इच्छा करता है । ( ४ ) शिक्षा का अधिकार (Right of Education) शिक्षा का अधिकार नैतिकता से सीधा संबन्धित है । शिक्षा प्राप्त व्यक्ति श्र ेय अश्र ेय, शुभ -अशुभ और अपने हिताहित को जान सकता है । अज्ञानी अथवा अशिक्षित व्यक्ति इनमें विवेक नहीं कर सकता । शिक्षा ही मानव के सर्वांगीण विकास का एक मात्र साधन है । शिक्षा ही मानव को पशुत्व से ऊपर उठने में प्रथम और प्रमुख सहायक बनती है, और सामान्य मानव को नैतिक बनाने में सक्षम होती है । नैतिक धारणाओं को सर्वव्यापी बनाने के लिए शिक्षा एवं सशिक्षा की महती आवश्यकता है । I इसीलिए मनीषियों ने शिक्षा प्राप्ति के अधिकार को व्यक्ति के नैतिक अधिकारों में स्थान दिया है । शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है । (५) सम्पत्ति का अधिकार (Right of Property ) जीवन और जीविका उपार्जन के अधिकार के साथ सम्पत्ति रक्षण का अधिकार भी संलग्न है । मानव दूरदर्शी प्राणी है, वह भविष्य के बारे में भी सोचता है । वह जानता है कि मानव जीवन में दुःख, कष्ट, आपत्ति, विपत्ति आते ही रहते हैं । कभी बेरोजगारी तो कभी रोजगार में कमी, कभी बीमारी का आक्रमण भी हो जाता हैं और आज के युग में एक्सीडेंट की पर बनी रहती है । 1 सम्भावना तो पग-पग इन सब आकस्मिक घटनाओं से पार पाने के लिए धन अति आव श्यक है । धन के संबल से इन आपदाओं को सरलता से पार किया जा सकता है । इसीलिए वह अपने उपार्जन में से कुछ धन का संचय करता रहता है और यह संचित द्रव्य ही उसकी और उसके परिवार की सम्पत्ति बन जाता है । इसके रक्षण का अधिकार समाज उसे देता है । १ आरोग्गगोहि लाभं ......... Jain Education International For Personal & Private Use Only - लोगस्स, आवश्यक सूत्र www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy