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________________ अधिकार - कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४०१ मानव का यह अधिकार संसार के सभी समाजों, नैतिक और धार्मिक संस्थाओं द्वारा स्वीकृत है । यह अधिकार सार्वभौम है । ईसामसीह ने thou shalt not kill कहकर इसी अधिकार को स्वीकृति प्रदान की है । मुस्लिम मत में भी यह स्वीकृत है और भारतीय सभ्यता-संस्कृति तथा धर्मों का प्राण भी यही है । इसीलिए अहिंसा को सार्वभौम कहा गया है । दण्डशास्त्र में भी हत्या ( murder ) तथा आत्महत्या ( suicide) को दण्डनीय अपराध माना गया है और सभ्य संसार के सभी न्यायालय वधकर्ता ( murderer ) को दण्ड देते हैं । (२) जीविकोपार्जन का अधिकार (Right to Livelihood) जीवन के अधिकार के साथ ही जीविकोपार्जन का अधिकार संलग्न है । जीवित रहने के लिए मानव को भोजन, वस्त्र, आवास आदि की अनिवार्य आवश्यकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं, और इसके लिए वह किसी न किसी प्रकार का श्रम, व्यापार, धन्धा अथवा रोजगार करता है, जीविकोपार्जन का कोई न कोई उपाय करता ही है । व्यक्ति का कर्तव्य है कि जीवकोपार्जन का नीतिसम्मत साधन अपनाए - ऐसा साधन जो अन्य लोगों के लिए बाधक न हो । अन्य लोगों का भी कर्तव्य है कि वे उसके जीविकोपार्जन में बाधक न बनें, जितना सम्भव हो सहयोगी ही बनें । यह अधिकार भी सभी समाजों द्वारा स्वीकृत है । आचार्य हेमचन्द्र ने मार्गानुसारी के ३५ बोलों में स्पष्ट कहा है कि सदगृहस्थ न्याय नीति द्वारा जीविका उपार्जन करने वाला हो । भारत के प्राचीन सद्गृहस्थ का परिचय देते हुए भगवान महावीर ने कहा है-धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाण विहरेंति-धर्म के अनुसार ( नीति के अनुसार ) जीवन वृत्तिचलाते थे । (3) चिकित्सा का अधिकार (Right f Remedy ) ( जीवन का अभिप्राय स्वस्थ जीवन है, रोगो जीवन नहीं । नीरोग व्यक्ति ही नैतिकता का सुचारु रूप से पालन कर सकता है । अतः चिकित्सा IT अधिकार भी जीवन के अधिकार से जुड़ा है । यह अधिकार भी सार्वभौम है । इसकी इतनी मान्यता है कि घन १ हेमचन्द्र : योगशास्त्र, १/४७-५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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