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________________ ४०० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन कर्तव्य और अधिकार परस्पर सापेक्ष हैं । प्रत्येक अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा हुआ । एक व्यक्ति के अधिकार को सम्मान देने के लिए दूसरा व्यक्ति बाध्य होता है और यही उसका प्रथम व्यक्ति के प्रति कर्तव्य होता है । इस प्रकार अधिकार और कर्तव्य एक चक्र चक्रिक नियम ( Circle according to cyclic order) के अनुसार चलने लगता है और स्थिति यह आ जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार भी होते हैं और कर्तव्य भी । विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि कर्तव्य और अधिकार समाज सापेक्ष होते हैं; एक व्यक्ति का न कोई अधिकार होता है न कर्तव्य | यदि मनुष्य एकाकी वन में निवास करे, अन्य व्यक्तियों से किसी प्रकार का संपर्क ही न रखे और न कोई अन्य व्यक्ति उसके संपर्क में आये ही तो ऐसे निपट अकेले ( absolutely lonely ) व्यक्ति के लिए अधिकार और कर्तव्यों का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता । लेकिन ऐसी स्थिति मानव के जीवन में आती नहीं । मनुष्य सामाजिक प्राणी ( Social animal) है, वह बिना साथी के रह ही नहीं सकता, अतः अधिकार और कर्तव्य — दोनों ही उसके लिए आवश्यक हैं । - के समाज जो भी अधिकार व्यक्ति (individual) को प्रदान करता है, उससे यह अपेक्षा करता है कि वह औचित्यपूर्ण तरीके से, अपने और समाज शुभ के लिए ही उन अधिकारों का प्रयोग करेगा, इसलिए वह शर्तहीन अधिकार नहीं देता अपितु कर्तव्यों की शर्त अधिकारों के साथ जोड़ देता है । व्यक्ति के नैतिक अधिकार (Moral Right of Man ) मनुष्य के प्रमुख नैतिक अधिकार निम्न रूप में विवेचित किये जा सकते हैं जीने का अधिकार (Right to Live ) जीवन का अधिकार मानव का मौलिक अधिकार ( Fundamental right) है और जीवनेच्छा इसका आधार है । जब मनुष्य जीवित ही न रहेगा तो नैतिकता की कल्पना ही व्यर्थ है । नैतिकता, धार्मिकता, सदाचार आदि जितनी भी अवधारणाएँ है, सभी जीवन सापेक्ष है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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