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जैन नीति और नैतिक वाद | ३९३
सहानुभूति के आधार पर रसल आदि चिन्तकों ने नैतिकता की व्याख्या करने का प्रयास किया है ।
सामान्य रूप से सहानुभूति ( सह + अनुभूति) का अर्थ है दूसरों की अनुभति, अनुभवों, भावनाओं के साथ सहवर्ती होना, उनके दुःख, शोक, हर्ष आदि को स्वयं अपने हृदय में अनुभव करना, एकाकार होना ।
सहानुभूति एक ऐसा अनुभव है जिससे नैतिकता का विकास होता है । दूसरों के कष्टों क्लेशों को मिटाने की भावना मन में स्फुरित होती है । जैन दर्शन के अनुसार सम्यक्त्व का एक बाह्य लक्षण बताया गया है अनुकम्पा | अनुकम्पा का अर्थ भी यही है कि दूसरों के दुख, पीड़ा, अभाव आदि को देखकर अपना हृदय भी कंपायमान हो जाय । ऐसा व्यक्ति ही दूसरों का दुःख मिटाने के लिए तत्पर हो सकता है ।
साथ ही वह ऐसा कार्य नहीं करेगा, जिससे दूसरे दुःखी हो जायँ । इस प्रकार वह नैतिक आचरण का पालन करेगा । उसमें नैतिकता का विकास होगा ।
इस विकास की पाँच अवस्थाएँ हैं
१. सहृदयता की अवस्था - - इसमें व्यक्ति दूसरे की भावनाओं के प्रति सहानुभूति प्रगट करता है, कुण्ठाओं आदि के प्रति हार्दिक अनुभूति प्रगट करता है ।
२. नैतिक मूल्यांकन की कलापूर्ण ( aesthetic) अवस्था में पारस्परिक सहानुभूतिमय भावनाओं की प्रेषणीयता होती है । इस अवस्था में साध्य और फल के साथ भी सहानुभूति होतो है तो वह कर्म शुभ है । यह शुभ औचित्य और उपयोगिता (propriety and utility) के बराबर है |
३. नैतिक नियोग (moral imperative) की अवस्था में एक ओर सहानुभूति और संवेदनशीलता के सद्गुण खिलते हैं तो दूसरी ओर आत्म
दान और आत्मोपदेश के सुमन विकसित होते हैं । इन्हें नैतिक आदेश भी कहा जाता है और इन आदेशों के प्रति श्रद्धा ही कर्तव्य होते हैं ।
४. ईश्वरीय आदेश की अवस्था - वह है जिसमें नैतिक आदेश अनुल्लं - घनीय हो जाते हैं और व्यक्ति उन्हें सर्वशक्तिमान ईश्वर के आदेश समझकर उनका पालन करता है ।
५. चरित्र-निर्माण की अवस्था - में व्यक्ति सद्गुणों में साझीदार बन जाता है और इन गुणों के प्रति समर्पित हो जाता है ।
इस प्रकार एडम स्मिथ ने सहानुभूति की व्याख्या नैतिक चरम की उच्च स्थिति तक पहुंचा दी है ।
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