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३६२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
हचिसन ने भावनाओं को (१) शान्त और (२) अशान्त-इन दो वर्गों में वर्गीकृत किया है। इनमें से शान्त भावनाएं शुभ हैं और अशान्त भावनाएँ अशुभ ।
रस्किन ने रुचि को महत्व दिया है। रुचि का अर्थ उसकी दृष्टि में पसन्दगी है और वह इसे नैतिक रसेन्द्रिय कहता है।
___ गीता में भी रुचि का महत्व दिखाई देता है। वहाँ कह गया है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है ।
जैन नीति की दृष्टि से शेपट्सबरी की तीनों भावनाओं की तुलना क्रमशः अशुभोपयोग, शुभापयोग और शुद्धोपयोग से की जा सकती है, लेकिन जैनधर्म का शुद्धोपयोग विकार रहित है जबकि शेफ्ट्सबरी ने आत्म प्रेम भावना में स्वार्थ और संग्रह का भी समावेश कर लिया है।
हचिसन की शान्त और अशान्त भावनाओं को क्रमशः शुभ और अशुभोपयोग कहा जा सकता है।
रुचि की चर्चा तो सम्यक्त्व के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन सूत्र में भी आई है। वहां दस प्रकार की रुचियां बताई गई हैं।
लेकिन सिर्फ रुचि नैतिकता के सिद्धान्त की निर्णायिका नहीं हो सकती और न स्वयं ही नैतिक आचरण बन पाती है क्योंकि यह तो मात्र भावात्मक पक्ष ही हैं। इसी कारण जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र को पृथक-पृथक बताया गया है।
तथ्य यह है कि सम्यकचारित्र अथवा नीति की दृष्टि से सदाचार ही नैतिकता की कोटि में परिगणित किया जाता है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के नैतिक विचार उसकी पुस्तक नैतिक स्थायीभावों के सिद्धान्त (Theory of Moral Sentiments) में मिलते हैं और उसके सिद्धान्तों को सहानुभूतिवाद कहा गया।
सहानुभूति वह है जिसके द्वारा सद्गुण और ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है तथा वह जो सद्गुण रूप से मूल्यांकन किया जाता है। सहानुभूति सद्गुण का साधन और स्रोत दोनों ही हैं । एक तरह से यह प्रज्ञावाद ही है।
१. गीता १७१३ –श्रद्धा मयोऽयं पुरुषः यो यच्छुद्धः स एव हि । २. उत्तराध्ययन सूत्र २८ ३. संगमलाल पाण्डेय : नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ० ११५
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