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जैन नोति और नैतिक वाद | ३६१
भारत में भी अन्तरात्मवाद की परम्परा बहुत पुरानी है। महाभारत में कहा गया है कि सूख, दुःख, प्रिय-अप्रिय, दान और त्याग सभी में अन्तरात्मा को प्रमाण मानना चाहिए।
जैन धर्म में भी इसको स्वीकार किया गया है। वहाँ शुभ-अशुभ, विहित-निषिद्ध कर्मों की सबसे बड़ी कसौटी मनुष्य का स्वयं का हृदय माना गया है।
अन्तरात्मावाद को lutuitionism भी कहा गया है। Intuition का अभिप्राय है-अन्तर्दृष्टि ।
अन्तई ष्टि के स्वरूप के विषय में मतभेद होने से इसके अनेक सम्प्रदाय हो गये हैं।
क्लार्क आदि नीतिचिन्तकों ने अन्तरात्मा को बौद्धिक माना है। इनके अनुसार अन्तर्दृष्टि प्रज्ञा है तथा इसके निर्णय प्रातिभ होते हैं । यह कार्य की अच्छाई-बुराई को साक्षात् जानती है। इसका ज्ञान सहज और अपरोक्ष है।
प्रज्ञावाद अथवा सहजज्ञान की अवधारणा उत्तराध्ययन सूत्र में भी प्राप्त होती हैं। कहा गया है-प्रज्ञा द्वारा धर्म की समीक्षा करके तत्वअतत्व का निश्चय करना चाहिए।
आन्तरिक विधानवाद का दूसरा भेद नैतिक इन्द्रियवाद है। इस वाद के विचारकों में शेफ्ट्सबरी, हचिसन और रस्किन प्रमुख माने जाते हैं। इनके अनुसार शुभ और अशुभ का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है जैसेघ्राणेन्द्रिय द्वारा सुगन्ध-दुर्गन्ध में भेद किया जाता है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ में भी इन्द्रियों द्वारा विवेक किया जा सकता है। __अनुभूति के आधार पर शेफ्ट्सबरी ने तीन प्रकार की भावनाएँ स्वीकार की हैं
१. राग-द्व'ष, ईर्ष्या आदि अस्वाभाविक अथवा असामाजिक भावनाएँ।
२. दया, परोपकार आदि स्वाभाविक अथवा सामाजिक भावनाएं । ३. आत्म प्रेम आदि आत्म भावनाएँ।
१. महाभारत, अनुशासन पर्व ११३/६-१० २. उत्तराध्ययन सूत्र २३।२५ .
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