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३६० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
विधानों का पालन नैतिकता माना जाता है और इन्हें भंग करना अनैतिकता । मनुष्य पर यह विधान बाध्यकारी होता है और इसको भंग करने पर दण्ड दिया जाता है ।
जहां तक इन तीनों प्रकार के विधानों का सम्बन्ध है जैन-नीति इन्हें मान्य करती है | ठाणांग सूत्र' में दस प्रकार के धर्म बताये हैं, उनमें नगर धर्म, ग्राम धर्म, कुल धर्म, संघ धर्म आदि नैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । वहाँ भी इन धर्मों के पालन की प्रेरणा दी गई है ।
लौकिक धर्म (कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, ग्रामधर्मं, नगरधर्मं ) आदि के विषय में तो सोमदेव सूरि ने यह व्यवस्था दी है कि जहां तक सम्यक्त्व की हानि और व्रत दूषित न होते हों, जैनियों को सभी लौकिक विधियाँ मान्य करना चाहिए । 2
४. ईश्वरीय विधानवाद तो सभी धर्मो / धर्मग्रन्थों में मिलता है । गीता का 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज' इसी सिद्धान्त का समर्थन करता है । बाइबिल, कुरान शरीफ, वेद, पुराण, स्मृति आदि जितने भी धर्म ग्रन्थ हैं, सभी अपने नियमों को ईश्वरीय विधान बताते हैं ।
जैन धर्म में भी इसके बीज मिल जाते हैं । आचारांग सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं - मेरी आज्ञा में धर्म आणा धम्मो है ।' आदि सूत्र ईश्वरीय विधानवाद के ही समर्थक हैं ।
वैदिक एवं जैन दृष्टि में अन्तर यह है कि वैदिक ईश्वर जहाँ एक परम सत्ता है, वहाँ जैन दृष्टि से ईश्वर एक देहधारी वीतराग पुरुष है, प्राणी मात्र के अत्यन्त हित व सुख के लिए नियम बनाते हैं ।
विधानवाद का दूसरा प्रमुख भेद आन्तरिक विधानवाद है । इसके अनुसार शुभ - अशुभ का निर्णय करने वाला अन्तरात्मा है ।
हेनरी मोर, वुडवर्थ, क्लार्क आदि पश्चिमी चिन्तक इस विचार धारा के समर्थक रहे हैं । आधुनिक युग में वेस्टरमार्क आदि नीतिचिन्तक इसके समर्थक हैं ।
१ स्थानांग, स्थान १०, सूत्र ७६०
२ सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्व हानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥ - यशस्तिलक चम्पू ८ / ३४
३ आचारांग १/६/२/१८१
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