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________________ जैन नीति और नैतिक वाद | ३८६ शिक्षा भी सर्वप्रथम अपने समूह से ही मिलती है। यह गण, जाति, कुल समाज, राष्ट्र और जनपद आदि अनेक प्रकार के होते हैं। इनमें से प्रत्येक के कुछ निश्चित नियम अथवा विधान होते हैं, जिन्हें मानना मनुष्य के लिए आवश्यक होता है । यही विधानवाद है। गण, जाति आदि को ही विधान अथवा वैधानिक संस्थाएं कहा गया है। यह बाह्य विधानवादी संस्थाएँ हैं । वस्तुतः विधानवाद के दो प्रमुख भेद हैं-(१) बाह्य विधानवाद और (२) आन्तरिक विधानवाद । बाह्य विधानवाद के प्रमुख भेद हैं-(१) सामुदायिक विधानवाद (२) सामाजिक विधानवाद (३) राजनैतिक विधानवाद (४) ईश्वरीय विधानवाद । १. सामुदायिक विधानवाद का अभिप्राय समुदाय (tribe or community) के नियमों से है । समुदाय के मुखिया के आदेश का पालन ही नैतिकता माना जाता है और उसके आदेश का उल्लंघन ही अनैतिकता। इसका प्रारम्भिक रूप आदिम कबीलों में दिखाई देता हैं। आधुनिक युग में श्रमिक संघ (trade union) तथा अन्य विभिन्न सभाओं, एसोसिएशन आदि में इसका सुधरा हुआ रूप दिखाई देता है । सुधरा हुआ इस प्रकार कि किसी समस्या पर सदस्यों को विचार प्रगट करने का अवसर दिया जाता है और उनके विचार सुनकर निर्णय किया जाता है; फिर भी . अध्यक्ष या सभापति का हो निर्णय मान्य होता है। २. सामाजिक विधानवाद के अनुसार समाज के निर्णय ही नैतिक हैं और उनका उल्लंघन अनैतिक । प्रत्येक समाज को अपनी-अपनी परम्परा, रूढ़ि, मर्यादा आदि भिन्न-भिन्न होती हैं, और उन्हीं के अनुसार सामाजिक विधान भी होते हैं। यद्यपि आधुनिक युग में समाज के बन्धन शिथिल हो चले हैं। किन्तु फिर भी इनकी नैतिक (Moral) मान्यता तो है ही; इस रूप में ही सही, व्यक्ति इन विधानों का अनेक अवसरों पर आदर तो करता ही है । ३. राजनैतिक विधानवाद का अभिप्राय राष्ट्रीय अथवा राज्य के नियम उपनियमों से है । पहले राजा ही इन नियमों का नियामक होता था, अब प्रजातन्त्रात्मक शासन प्रणाली में प्रजा-प्रतिनिधि इन विधानों का निर्माण करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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