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३८८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
और २. विश्वात्मा । इसके अनुसार विश्वात्मा (विश्व का कल्याण-मंगल करने वाली आत्मा) ही आत्म-साक्षात्कार करने में सक्षम होती है। इसके लिए वह आत्मत्याग आवश्यक मानता है।
श्री मैकेन्जी के शब्दों में
"हम सामाजिक साध्यों का साक्षात्कार करके ही सच्ची आत्मा अथवा पूर्ण शुभ का साक्षात्कार कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें व्यक्तिगत आत्मा का निषेध करना चाहिए जो कि सच्ची आत्मा नहीं है। हमें अपनी आत्मा का परित्याग करके अपना आत्मलाभ करना चाहिए।
आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है आदर्शात्मा की प्राप्ति, जो कि शाश्वत और अनन्त है। . आत्मपूर्णतावाद के इस सिद्धान्त पर जैन-नीति का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । जैन-नीति का लक्ष्य भी आदर्शात्मा की प्राप्ति है और इसके लिए वह कषायात्मा का त्याग आवश्यक मानती है।
जैन धर्म के अतिरिक्त भारत के जितने भी मोक्षवादी दर्शन हैं, वे सब पूर्णतावाद की अवधारणाओं से सहमत हैं ।
शंकराचार्य ने तो स्पष्ट ही कहा हैआत्म लाभ से बड़ा कोई लाभ नहीं है।' ऐसे ही विचार सांख्य, योग, वेदान्तादि दर्शनों के हैं।
जैन-नीति भी वासनाओं, कषायों आदि का मार्गान्तरीकरण ही उचित मानती है, यहाँ इसका नाम क्षय दिया गया है। इसके विपरीत दमन अथवा शमन का मार्ग उचित नहीं माना गया; क्योंकि दमित या उपशमित कषायें पुनः दुगुने वेग से उभर आती हैं और वे आत्मा के पतन का कारण बनती हैं। विधानवाद
मनुष्य सदा से समूह में रहता आया है। वह समूह से सब कुछ सीखता है और परिपक्व होने पर सिखाता भी है। उसको नैतिकता की
१ उद्धृत, डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० २२५ २ डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० २२७ ३ तुलनीय-अप्पाणं वोसिरामि-सामायिक सूत्र ४ आत्मलाभात्परोनान्यो लाभः कश्चिन्न विद्यते
- शंकराचार्य : उपदेश सहस्री १६/४
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