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________________ जैन नीति और नैतिक वाद | ३८५ (Social Equilibrium) का प्रत्यय जोड़ा । सामाजिक स्वस्थता और समानता का अभिप्राय समाज की सुव्यवस्था माना जाना चाहिए। इस सुव्यवस्था को बनाये रखने के लिए 'जैन नीति के व्यावहारिक बिन्दुओं के अधिकांश सूत्रों में इस प्रकार की अन्तर्भावना निहित है। बुद्धिपरकतावाद बुद्धिपरकतावाद बुद्धि के अधिकार पर बल देता है और सच्चरित्र को परमशुभ मानता है । इसके अनुसार आत्मविजय ही परमकल्याण है। यह वासनाओं को ठुकराता है और उन्हें आत्मा के जकड़ने के लिए जाल के समान मानता है। इसका एक भेद विरक्तिवाद (Cynicism) है, जिसका सिद्धान्त हैधर्म (Virtue) धर्म के लिए, यह सुख अथवा आनन्द का साधन नहीं है। यद्यपि विरक्ति को तो जैन-नीति भी स्वीकार करती है; किन्तु वह धर्म अथवा सद्गुणों को सुख और आनन्द का साधन भी मानती है । दूसरा भेद बुद्धिवादी विरक्तिवाद (Stoicism) है। इसका प्रवर्तक जेमो (Jemo) (३४०-२६५ B.C.) था। यह धर्ममय जीवन को श्रेष्ठ मानते हैं। इनके मत में प्रकृति के अनुसार जीवन का अभिप्राय बुद्धि के अनुसार जीवन है । इनके अनुसार मानव को सामाजिक नियमों का पालन करना चाहिए। तीसरा भेद ईसाई संन्यासवाद है। इनके अनुसार वर्तमान जीवन केवल एक यात्रा है जो स्वर्ग का दैवी जीवन पाने की तैयारी है।। ____ जहां तक जैन नीति का सम्बन्ध है, वह बुद्धि के अनुसार जीवन को अस्वीकार नहीं करती, साथ ही शुभ कर्मों द्वारा स्वर्ग प्राप्ति के प्रयास को भी उचित ठहराती है; किन्तु स्वर्ग को अपना लक्ष्य नहीं मानती। जैन नीति के अनुसार इस मानव जन्म का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, सम्पूर्ण बंधनों से विमुक्ति है । स्वर्ग इस यात्रा का एक सुखद पड़ाव मात्र है । आधुनिक युग में बुद्धिपरकतावाद का सबसे बड़ा समर्थक जर्मन दार्शनिक कांट (Imanuel Kant) है। इसका दर्शन कठोर कहा जाता है; क्योंकि इसने भावनाओं को कोई स्थान नहीं दिया। यह वासनाओं के ऊपर उठे हुए बुद्धिमय जीवन को नैतिक जीवन मानता है। कांट के अनुसार भावनाओं से प्रेरित कर्म नैतिक नहीं हो सकते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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