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३८४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
बातों में सहयोगी अथवा सहायक बनते हैं, वे शुभ हैं, और जो इन में सहयोगी नहीं बनते वे अशुभ हैं ।
जहां तक जीवन की रक्षा आदि इन तीनों बातों का सम्बन्ध है, जैन दर्शन का इसमें मतभेद नहीं है । आचारांग सूत्र में कहा गया है - जीवन सभी को प्रिय है । दशवैकालिक के अनुसार भी सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता ।" अभयदान ? अथवा जीवन-रक्षा को भी श्रेष्ठ कहा गया है । इस जीवन-रक्षा में ही दीर्घायुष्य का रहस्य छिपा हुआ है । आवश्यकसूत्र में तो यहाँ तक कहा है कि सीधी राह चलते प्राणियों को उनकी गति, स्थान, क्रिया आदि में अवरोध पैदा करना भी पाप है । इसके लिए साधक मन में पश्चात्ताप कर उनसे क्षमा माँगता है । "
कोषीतकि उपनिषद् में कहा गया है - निःश्रेयस् मात्र प्राण में है चाणक्य ने भी धन और स्त्री की अपेक्षा अपनी आत्मा के रक्षण की बात कही है ।" बुद्ध भी धम्मपद में कहते हैं कि स्वयं को सुरक्षित रखना चाहिए | 7
यह कहा जा सकता है कि जैन अहिंसा का संपूर्ण भवन जीवन-रक्षा के नैतिक सिद्धान्त पर खड़ा है । किन्तु यह एक ही पक्ष है । जैन अहिंसा स्व और पर दोनों के जीवन की रक्षा का सिद्धान्त मानती है; जबकि नैतिक विकासवाद अपनी स्वयं की रक्षा तक सीमित है, इसीलिए इसे वैयक्तिक विकासवाद कहा जाता है । और यही जैन-नीति तथा विकासवाद में प्रमुख अन्तर है ।
स्पेन्सर के इस वैयक्तिक विकासवाद को स्टीफेन ( Stephen ) तथा अलेक्जेण्डर ने विशद बनाने का प्रयास किया । स्टीफेन ने इसमें सामाजिक स्वस्थता (Social Health ) और अलेक्जेण्डर ने सामाजिक समानता
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१ आचारांग १/२/३
२ दशकालिक ६ / ११
३ सूत्रकृतांग, अध्ययन ६, वीरत्थुइ - दणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं ।
४ देखें 'इरियावहिया सूत्र' आवश्यक १
५ कौषीतकि उपनिषद् ३ / २ - अस्तित्वेव प्राणानां निःश्रेयसमिति । ६ चाणक्य नीति दर्पण - आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ।
७ धम्मपद १५७
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