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________________ जैन नीति और नैतिक वाद | ३८३ दूसरे वर्ग में क्रमशः धनाढ्यता, आरोग्य और दीर्घायु के सुख हैं । तीसरे वर्ग में संतोष, निष्क्रमणता और अव्याबाध सुख रखे जा सकते हैं । इनमें से अव्याबाध सुख तो अरिहंत-सिद्ध अवस्था का सुख है, और वह भूमिका नीति से परे है । निष्क्रमण सुख नैतिकता का चरम है और सन्तोष सुख सामान्य नीति के अन्तर्गत मनुष्य मात्र के लिए आता है । यद्यपि साधु परम सन्तोषी होता है, किन्तु पश्चिमी नीतिशास्त्र में नैतिक सुख की जो अवधारणा है, वह आगम वर्णित सन्तोष सुख से भली भाँति अभिव्यक्त हो जाती है । सुखवाद की अवधारणा को स्वीकार करते हुए भी जैन दर्शन एक मात्र इसी को साध्य नहीं मानता, वह ज्ञानात्मक पक्ष को भी उतना ही महत्व देता है । सिद्धजीवों में ज्ञान दर्शन के पश्चात सुख का ही क्रम रखा गया और सुख - अव्याबाध सुख की अवधारणा का कारण भी अनन्तज्ञान दर्शन को माना गया है । विकासवादी 'सुखवाद विकासवाद १६वीं शताब्दी की सबसे बड़ी देन है । यद्यपि यह सिद्धान्त किसी न किसी रूप में पहले भी मिलता था किन्तु डार्बिन और हर्बर्ट स्पेन्सर ने इसको सर्वथा नवीन रूप प्रदान किया। इस विषय में डार्बिन की पुस्तक 'जातियों का उद्भव' (Origin of Species) युगान्तरकारी सिद्ध हुई । किंतु यह तथा ' मानव का आविर्भाव ' ( Descent of Man ) नाम कीकी दोनों पुस्तकें प्रकृति और प्राकृतिक पर्यावरण के आधार पर लिखी हैं । यही बात उनकी 'जीवन-संग्राम' ( Survival of the Fittest) के संबन्ध में सत्य है । हरबर्ट स्पेन्सर ने इसी विकासवाद के सिद्धान्त को नीति के क्षेत्र में भी लागू करने का प्रयत्न किया । इसी कारण इन दोनों का विकासवाद 'प्राकृतिक विकासवाद' कहलाता है । इस सिद्धान्त के आधार पर तीन बातें प्रतिफलित होती हैं १. जीवन की रक्षा २. पर्यावरण से समायोजन ३. विकास की प्रक्रिया में सहयोगी बनना । अतः विकासवाद के अनुसार मानव के वे क्रिया-कलाप जो इन तीनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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