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________________ ३८२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन ३. अधिक से अधिक संख्या का अधिक से अधिक सुख (greatest happiness of the greatest number) ४. बहसंख्यकों का सूख (happiness of majority) । ५. सार्वभौम सुख (universal happiness)। ६. सामान्य सुख (general happiness) । ७. सामाजिक सुख (social happiness) । यहाँ उच्चतम सुख से यह अभिप्राय लिया जा सकता है कि इन्द्रियसुखों की अपेक्षा मानसिक सुख उच्च है और मानसिक से बौद्धिक तथा बौद्धिक से हार्दिक तथा आत्मिक सुख उत्तरोत्तर उच्च, उच्चतर उच्चतम हैं। __जहाँ तक सुख का सम्बन्ध है, जैन धर्म भी इस अवधारणा को निरस्त नहीं करता, अपितु इसे स्वीकार ही करता है। भगवान महावीर और उनके अनुयायी श्रमण-साधक जब कभी कोई व्यक्ति किसी प्रकार का नियम ग्रहण करने का संकल्प प्रकट करता है तो वे एक ही वाक्य कहते हैं___ जहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबन्ध करेह । (देवानुप्रिय ! जिसमें तुम्हें सुख हो, वैसा करो; लेकिन शुभ कार्य में विलम्ब न करो।) इन शब्दों में नैतिक सुख (उच्चतम नैतिक सुख) की अवधारणा की अनुमति के साथ-साथ शुभ कार्य की प्रेरणा भी है। जैन आगम स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के सुख' बताये गये हैं १. आरोग्य २. दीर्घायु ३. धनाढ्यता (आढ्यता-आदर-सम्मान प्राप्त होना) ४. इच्छित शब्द और रूप प्राप्त होना ५. इच्छित गन्ध, रस और स्पर्श का प्राप्त होना ६. सन्तोष ७. जब जिस वस्तु की आवश्यकता हो,उस समय उस वस्तु का प्राप्त होना ८. शभ भोग की प्राप्ति ह. निष्क्रमण (पूर्ण अपरिग्रहवृत्ति) दीक्षा और १०. अव्याबाध सुख-निर्विघ्न सुख । इन सुखों को निम्न से उच्चतरीय क्रम में रखा जाय तो इच्छित शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श सुख, भोग-सुख हैं जिन्हें इन्द्रिय-सुख अथवा नैतिकता की दृष्टि से निम्न कोटि के सुख कहा जा सकता है। १. स्थानांग सूत्र, स्थान १०, सूत्र ७३७, संपादक : मुनिश्री कन्हैयालालजी कमल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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