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________________ ३८६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अपितु निरपेक्ष बुद्धि से प्रेरित कर्म ही नैतिक हो सकते हैं । इसी आधार पर यह 'कर्तव्य के लिए कर्तव्य' का सिद्धान्त मानता है । काट की यह धारणा गीता के निष्काम कर्मयोग से प्रभावित है । अपनी धारणा के अनुसार ही वह सार्वभौम विधान, प्रकृति विधान स्वयं साध्य, स्वातन्त्र्य और साध्यों का राज्य-नीति के इन प्रत्ययों का विधान करता है । इन सभी में वह सार्वभौमता ( generalisation) को प्रमुख तत्व बताता है । जैन नीति कांट से पूर्णतः सहमत नहीं है । वह ज्ञान के साथ भावनाओं का महत्व भी स्वीकारती है। यह कहना अधिक संगत होगा कि नैतिक जीवन में जैन नीति के अनुसार ज्ञान से भावनाओं का अधिक महत्व है । यदि मानव की भावना शुद्ध अथवा शुभ है तो मानव नैतिक है, यह जैन दृष्टिकोण है । उदाहरणार्थ - डाक्टर के आपरेशन करते समय यदि रोगी का प्राणान्त हो जाता है तो भी भावना शुद्ध होने से डाक्टर नीतिमान है । इसके विपरीत शिकारी की गोली से यदि कोई प बच निकलता है तो भी भावना कुत्सित होने से शिकारी अनैतिक ही है । nic का मत है कि जो नियम सार्वभौम बन सकते हैं, वे नैतिक हैं और जो सार्वभौम नहीं बन सकते वे अनैतिक हैं । उदाहरण के लिए अब्रह्मसेवन, परस्त्रीसेवन, असत्यभाषण आदि नियम सार्वभौम बन सकते हैं, इसलिए यह सभी नैतिक हैं । इस दृष्टि से कांट भारतीय दर्शनों के समीप आ जाता है । जैन नीति सहित सभी भारतीय धर्म एवं नीतिकार अहिंसा आदि को सार्वभौम ही स्वीकारते हैं । कांट का स्वतन्त्रता का सिद्धान्त जैन-नीति के बहुत निकट है । स्वतन्त्रता से उसका अभिप्राय व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्ति से है । यदि व्यक्ति दूसरे का अधिकार छीनता है तो उसका यह कार्य अनैतिक है । जैन-नीति भी इसी सिद्धान्त को स्वीकार करती है । वह तो प्राणिमात्र को अपने समान समझने की प्रेरणा देती है - जैसे हमें अपना सुख प्रिय है, वैसे ही सबको अपना सुख प्रिय है; अतः किसी को भी दुःख नहीं देना चाहिए, किसी को बन्धन में नहीं रखना, आज्ञा में नहीं रखना चाहिए', आदि यह जैन-नीति का मूल उद्घोष है । १ आचारांग सूत्र कहता है - आय तुले पयासु-सब को अपने आत्मा के तराजू से तोलो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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