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________________ आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३७३ इसी भूमिका पर आकर शुभ-अशुभ, कर्तव्य- अकर्तव्य आदि जितने भी नैतिक कर्तव्य हैं, उनका यथार्थ ज्ञान भी होता है और साथ ही आचरण' भी । इसका कारण यह है कि इस भूमिका पर आकर उसकी प्रज्ञा ऋतंभरा बन जाती है, सत्य और यथार्थग्राही हो जाती है । ममत्व, अहंत्व आदि दोष जो प्रज्ञा में मलिनता और विकार लाते हैं, वे सबके सब अल्पतम रह जाते हैं और प्रत्येक आचरण का उसे यथार्थ बोध हो जाता है । उस समय उसके हृदय में एक ही भावना होती है - स्व-पर- कल्याण की और भावना के अनुरूप ही उसके सम्पूर्ण क्रिया-कलाप संचालित होते हैं, जो नैतिक ही होते हैं । ७-१२ गुणस्थान सात बारह तक के गुणस्थानं पूर्णरूप से आत्म- -केन्द्रित हैं । इनमें वचन और काय की कोई भी अशुभ क्रिया नहीं होती । श्रमण अपनी आत्मा के ध्यान में, आत्म-शोधन में लीन रहता है । 1 यद्यपि यह सत्य है कि कषायों / संवेगों का सद्भाव रहता है, किन्तु वे इतने क्षीण हो जाते हैं कि कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल पाते । फिर नैतिक चरम की स्थिति छठे गुणस्थान में ही प्राप्त हो जाती है, इससे आगे के गुणस्थानों में तो आत्म-शोधन की साधना और प्रक्रिया चलती है, जो धर्म अथवा तप के क्षेत्र में आती है । १३वाँ गुणस्थान सर्वज्ञत्वदशा (जीवन्मुक्त दशा) इस गुणस्थान में अवस्थित आत्मा सभी विकारों से परे हो जाती है, क्रोध आदि किसी प्रकार का आवेग रांवेग, मोह-ममत्व नहीं रहता, संपूर्ण ज्ञान अनावृत हो जाता है और वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इसी को अर्हत और सर्वज्ञ कहा जाता है । यद्यपि इस भूमिका में मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ होती हैं, केवली भगवान सभी जीवों की रक्षा, दया के लिए धर्मोपदेश देते हैं, जिज्ञासुओं १. सम्पूर्ण श्रमणाचार का वर्णन 'नैतिक चरम' अध्याय में किया गया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only - लेखक www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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