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३७२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भाषण (polished lie) भी कर जाता है, शत्रु के प्रति कभी उसके मन में दुर्भाव भी आ जाते हैं, दुश्चिन्तन भी हो जाता है । इस प्रकार जीवन की विषम परिस्थितियों में अशुभ का आचरण भी कर लेता है ।
परन्तु यह सब स्थायी नहीं होता, वह शीघ्र ही सम्भल जाता है और अशुभ भावों तथा अपशब्दों, मिथ्याभाषण एवं आचरण के लिए वह तीव्र पश्चात्ताप करता है तथा नैतिक आचरण के लिए और भी अधिक दृढ़ता 'से अपने आपको तैयार करता है ।
प्रमत्तविरत गुणस्थान
धर्मशास्त्रों के अनुसार इस गुणस्थान की प्राप्ति आत्मा को प्रत्याख्यानावरणीय कषायों ( क्रोध, मान, माया, लोभ) के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है। इस स्थिति में व्यक्ति अपने समस्त सांसारिक सम्बन्धों hat तोड़कर धर्माराधना में लीन हो जाता है ।
धर्माराधना के प्रभाव से वह अपने आवेगों-संवेगों पर पूर्ण नियन्त्रण करने में सक्षम हो जाता है । उसके जीवन में अनैतिकता बिल्कुल भी नहीं रहती । उसकी समस्त वृत्ति प्रवृत्तियाँ धर्म संपृक्त होने के कारण नैतिक ही होती हैं, धर्ममय बन जाती हैं ।
पंचम गुणस्थान में वह कभी राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा आदि विकथा भी कर लेता था, परिवार धन आदि के प्रति तथा स्वयं अपने शरीर के प्रति ममत्व तथा इन्द्रिय-विषयों के ( संयमित / मर्यादित ) सेवन के कारण जो अनैतिक आचरण हो जाता था, वह भी इस भूमिका पर आकर समाप्त हो जाता है ।
छठे गुणस्थानवर्ती श्रमण की स्वकेन्द्रित प्रवृत्तियां यतना - सावधानी के कारण धार्मिक और नैतिक ही होती हैं ।
श्रमण यद्यपि सांसारिकता को त्याग चुका होता है, फिर भी समाज प्रति निर्लिप्त नहीं रह पाता । स्वयं नैतिकता का परिपूर्ण पालन करते हुए समाज को भी नैतिकता की प्रेरणा देता है ।
इस नैतिकता की प्रेरणा को ही शास्त्रों में पर- कल्याण कहा गया है और वह एक प्रकार से भ्रमण का कर्तव्य ही बन गया है । इसीलिए तो वह सतत विहार करता है, धर्म और धार्मिकता का प्रचार करता है । सम्पूर्ण नैतिकता अथवा नैतिक चरम की दृष्टि से देखा जाय तो
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