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________________ आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३७१ देशविरति गुणस्थान चतुर्थ गुणस्थान में आत्मा की जो नैतिक इच्छा है, वह इस गुणस्थान में साकार रूप ग्रहण कर लेती है । वह नैतिकता का परिपालन करने लगता है—एक आदर्श सद् गृहस्थ के रूप में । शास्त्रीय दृष्टि से इस गुणस्थान की प्राप्ति अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है । अप्रत्याख्यानी कषाय, वास्तव में, व्रताचरण में अवरोधक होती हैं । इन अवरोधों के हटते ही आत्मा व्रतों का पालन करने में सक्षम हो जाता है, वह निरतिचार' श्रावक व्रतों का पालन करने लगता है । अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले आत्माओं का दृष्टिकोण यथार्थ तो हो जाता है, किन्तु ये अपने आवेगों - संवेगों पर नियन्त्रण नहीं कर पाते । वे चाहते तो हैं कि आवेगों के प्रबल प्रवाह में न बहें, इसके लिए प्रयास भी करते हैं, फिर भी तृणसमूह में आग की चिन्गारी के समान उनके आवेग प्रबल हो उठते हैं और वे उस धारा में बह जाते हैं । प्रस्तुत देशविरति गुणस्थान में उनके प्रयास सफल होने लगते हैं, वे अपने संवेगों-आवेगों, क्रोध आदि कषायों पर आंशिक रूप में ही सही, काबू करने में सक्षम हो जाते हैं । इसी स्थल से व्यावहारिक नैतिक जीवन का भी प्रारम्भ हो जाता है । ऐसा व्यक्ति शुभ-अशुभ, कर्तव्य - अकर्तव्य, अच्छा-बुरा आदि में विवेक करके शुभ करणीय कर्तव्य का आचरण करने लगता है । उसके जीवन से अशुभ, अकरणीय आदि अनैतिकताएँ पलायन कर जाती हैं । व्यावहारिक में वह सज्जनता (gentleness) की छवि प्रदर्शित करता है । रूप आवेगों, संवेगों, कषायों पर पूर्ण नियन्त्रण न होने के कारण कभी वह फिसलता भी है, स्वीकृत व्रतों में दोषों का - अतिचारों का सेवन भी कर लेता है, किन्तु वह शीघ्र ही सम्भल भी जाता है । नैतिक दृष्टि से भी कभी - कभी वह अनैतिकता का सेवन भी कर लेता है, जैसे- परिवार की प्रतिष्ठा, धन की रक्षा के लिए कभी वह झूठ भी बोल जाता है, कलह आदि से बचने के लिए कपटपूर्वक मिथ्या १ श्रावकव्रतों और उनके अतिचारों का विस्तृत वर्णन 'नैतिक उत्कर्ष' नामक अध्याय में किया गया है । — लेखक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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