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३७४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशोलन
की शंकाओं का समाधान भी करते हैं, किन्तु यह सब उनका जीताचार है, नीति का यहाँ प्रवेश नहीं है । यह गुणस्थान और इसमें होने वाली प्रवृत्तियाँ नीति की सीमा से परे हैं।
इसके उपरान्त जीव सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है, अनन्त आनन्द में लीन हो जाता है। ____ नीति की दृष्टि से गुणस्थानों की अवधारणा एक महत्वपूर्ण घटक है । इसके अनुसार यह स्पष्टरूप से समझा जा सकता है कि व्यक्ति नैतिकता की किस भूमिका तक पहुँच चुका है। गूणस्थानों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के प्रत्यय साथ-साथ चलते हैं। दोनों में सामंजस्य और समन्वय स्थापित होता है। - सिर्फ व्यावहारिक और सांसारिक दृष्टि से विचार किया जाय तो नैतिकता का प्रारम्भ धार्मिकता से पहले भी हो सकता है । नास्तिक व्यक्ति जिनमें धार्मिकता का स्पर्श भी नहीं होता, जो ईश्वर, पुनर्जन्म, कर्म और यहाँ तक कि आत्मा की सत्ता को भी स्वीकार नहीं करते, वे भी नैतिक हो सकते हैं।
दया, सेवा, परोपकार, सहायता आदि ऐसी प्रवृत्तियाँ जो नैतिक हैं नास्तिकों में भी मिल सकती हैं और वे लोग भी नैतिक कहला सकते हैं, सज्जन हो सकते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा ऐसी नैतिकता, प्रथम सोपान में भी मिल सकती है । लेकिन ऐसी नैतिकता संसारलक्ष्यी होती है।
जब इसमें धार्मिकता का, आत्म-कल्याण का, यथार्थ बोध और दृष्टिकोण का पुट मिल जाता है तो नैतिकता धार्मिकता से संपृक्त होकर आत्मोत्थान का हेतु भी बन जाती है। ऐसी नैतिकता से मानसिक वत्तियों का शोधन भी होता है । सदिच्छा (Good will) जो नीति का एक प्रमुख प्रत्यय है, वह शाब्दिक और व्यावहारिक तथा उपचार मात्र न रहकर यथार्थ वास्तविकता बन जाता है ।
___ सदिच्छा से प्रेरित मानवीय समस्त व्यवहार स्वात्म और परात्मकल्याणकारी के रूप में एक विशिष्टता उत्पन्न करता है। इसी विशिष्टता की अपेक्षा जैन-दर्शन ने नैतिकता का प्रारम्भ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से माना है क्योंकि यहीं से नीति अथवा नैतिकता आत्म-सुख अथवा परमशुभ (Ultimate good; लक्ष्यी बनती है और यह संपूर्ण नीति का चरम लक्ष्य अथवा ध्येय है।
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