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________________ आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३६७ राजनीति आदि के क्षेत्र में वह शिखर पर पहुँचा हुआ भी हो सकता है, वह आर्थिक दृष्टि से भी अत्यधिक सफल हो सकता है । व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में वह प्रामाणिक, मधुरभाषी और सज्जन भी हो सकता है। धर्म के बाह्य पक्ष में भी उसका बहत ही सुन्दर आचरण सम्भव है, तितिक्षा आदि गुण भी हो सकते हैं, दानी भी हो सकता है और परोपकारी भी। इतना सब कुछ होते हए भी वह आध्यात्मिक विकास की दष्टि से शून्य ही होता है। आध्यात्मिक नैतिकता की दृष्टि से निम्नतम स्तर पर माना गया है। सास्वादन गुणस्थान (अधोमुखी वृत्ति) यद्यपि गुणस्थान क्रम में सास्वादन का द्वितीय स्थान है किन्तु यह आत्मा की अधोमुखी वृत्ति-पतनोन्मुखी दशा है । इसके लिए प्राकृत भाषा में सासायण शब्द है। संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं-(१) सास्वादन और (२) सासादन । उपशम सम्यक्त्वी' जब सम्यक्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व की ओर गिरता है किन्तु मिथ्यात्व तक पहुँचता नहीं उस अन्तराल में आत्मा को सम्यक्त्व का आस्वादन रहता है, इस अपेक्षा से इस गुणस्थान को सास्वादन कहा गया है। आसादन का अर्थ विराधना है। सम्यक्त्व की विराधना करके जीव जब पतित होता है, तब उसे सासादन (स-+आसादन) कहा गया है। इस गुणस्थान की उपमा वृक्ष से टूटे हुए फल से दी गई । जैसे फल वृक्ष से बिलग होकर भूमि की ओर गिर रहा है, अभी तक भूमि पर पहुँचा . नहीं है, भूमि का स्पर्श नहीं किया, गिर रहा है, उतना समय (period of १. उपशम सम्यक्त्व का चतुर्थ सम्यक्त्व गुणस्थान में विवेचन किया गया है । २ आसादनं सम्यक्त्वविराधनं, सह आसादनेन वर्तत इति सासादनो विनाशित सम्यग्दर्शनोऽप्राप्तमिथ्यात्वकर्मोदय जनित परिणामो मिथ्यात्वाभिमुखः सासादनः इति भण्यते । -षट्खंडागम, धवलावृत्ति, प्रथम खण्ड, पृ० १६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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