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________________ ३६६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन साधु समझना, (२०) मोक्ष मार्ग को संसार मार्ग, (२१) संसार मार्ग को मोक्ष मार्ग, (२२) जीव को अजीव, (२३) अजीव को जीव (२४) मुक्त को अमुक्त (२५) अमुक्त को मुक्त समझना । यह ६ से २५ तक के सभी मिथ्यात्व भ्रान्त और विपरीत धारणा के परिणाम हैं। नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से प्रथम गुणस्थानवी आत्मा में प्रमुख रूप से ५ प्रकार की भ्रान्त धारणाएँ होती/हो सकती हैं । (१) एकान्तिक धारणा-सत्य के किसी एक अंश को ही पूर्ण सत्य मान लेना । जैसे-आत्मा में ज्ञान गुण को ही स्वीकार करना तथा अन्य गुणों को नकार देना। (२) विपरीत धारणा-इसके उदाहरण उपरोक्त १६ से २५ तक के दस प्रकार के मिथ्यात्व हैं। (३) वनयिकता-यद्यपि विनय एक महत्वपूर्ण सद्गुण है किन्तु यह मिथ्यात्व तब बन जाता है जब व्यक्ति रागी-द्वषी देवों, कुलिंगी साधुओं आदि की भी विनय करता है और यह समझता है कि इनकी विनय करने से मुझे शाश्वत सुख प्राप्त हो जायेगा । इसी सन्दर्भ में रूढ़ परम्पराओं का पालन भी मिथ्यात्व है । (४) सांशयिकता- ऐसी आत्मा की चित्तवृत्ति दोलायमान रहती है। वह तत्व के विषय में निर्णय नहीं कर पाता। (५) अज्ञान-अज्ञान के दो अभिप्राय हैं-१. अल्पज्ञान और २. कुज्ञान अथवा विपरीत ज्ञान । अल्पज्ञान तो चार इन्द्रिय वाले सभी जीवों और पंचेन्द्रिय व पशुपक्षियों को होता है, तत्व की बात समझ सकें, इतना ज्ञान उन्हें होता ही नहीं । बहुत से मनुष्य भी ऐसे होते हैं । कुज्ञान का अभिप्राय है भ्रान्तिपूर्ण ज्ञान या मिथ्यात्वभावयुक्त ज्ञान । वास्तव में नीतिशास्त्र के दष्टिकोण से कदाग्रह, दुराग्रह, संशयात्मकता आदि ऐसी स्थिति हैं, जो व्यक्ति की नैतिकता में बाधक बन जाती हैं । ऐसा व्यक्ति आत्मविकास के नैतिक पथ पर नहीं चल पाता। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति निम्नतम स्तर पर होता है किन्तु सांसारिक दृष्टि से वह बहुत सफल भी हो सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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