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आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३६५
यह चारित्रमोहनीय की प्रकृतियां हैं और इनके कारण आत्मा आध्यात्मिक नैतिक चारित्र की ओर उन्मुख नहीं हो पाता। ____दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्वादि तीन प्रकृतियां उसके आत्माभिमुख होने में बाधक बनी रहती हैं। मिथ्यात्व के प्रकार
मिथ्यात्व आत्मिक दृष्टि से निविड़ अन्धकार है। इसके अनेक प्रकार हैं । तत्वार्थ भाष्य (८/१) में अभिगृहीत और अनाभिगृहीत- यह दो भेद बताये गये हैं । आवश्यक चूर्णि (६/१६५८) और प्राकृत पंचसंग्रह में तीन भेद हैं-१. संशयित २. अनाभिग्राहिक और ३. आभिग्राहिक, गुणस्थान क्रमारोह स्वोपज्ञवृत्ति (गाथा ६) तथा कर्मग्रन्थ (भाग ४, गाथा ५१) में आभिग्राहिक, अनाभिग्राहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक- यह पांच प्रकार के मिथ्यात्व बताये गये हैं ।
आगम और आग मेतर साहित्य में बिखरे हए सभी मिथ्यात्व भेदों की गणना करने पर मिथ्यात्व के २५ भेद प्राप्त होते है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है
(१) आभिग्राहिक---पर के उपदेश से ग्रहण किया हुआ।
(२) अनाभिग्राहिक-नसर्गिक-अनादिकाल से लगा हुआ, गुण-दोषों की बिना परीक्षा किये ही सभी मन्तव्यों को एक समान समझना ।
(३) आभिनिवेशिक-अपने मत को असत्य जानकर भी चिपके रहना (पूर्वग्रह)।
(४) सांशयिक-देव-गुरु-धर्म और तत्व के विषय में संशय रखना ।
(५) अनाभोगिक-विचार और विशेषज्ञान का अभाव अर्थात् मोह . की तीव्रतम दशा मानसिक-मूढता।
- इनमें से अनाभोगिक मिथ्यात्व अव्यक्त है और शेष चारों व्यक्त । (६) लौकिक (७) लोकोत्तर (८) कुप्रावचनिक () अविनय (१०) अक्रिया (११) अशातना (२) आउया (आत्मा को पुण्य पाप नहीं लगता) (१३) जिनवाणी की न्यून प्ररूपणा (१४) जिनवाणी की अधिक प्ररूपणा, (१५) जिनवाणी की विपरीत प्ररूपणा, (१६) धर्म में अधर्म में संज्ञा, (१७) अधर्म में धर्म संज्ञा, (१८) साधु को असाधु समझना, (१६) असाधु को
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